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________________ इतिहास इसका साक्षी है। उन्होने मद्रास, विहार और राजस्थान आदि मे जिस वीरता के साथ भनुशासन प्रदगित किया वह अपनी एक निराली और शानदार छाप छोड गया है, जो हमारे लिये गर्व की वस्तु है । किन्तु सबसे अधिक गौरवशाली गाया, जो हमे इतिहास के पृष्ठो मे मिलती है, वह है सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य की धर्मपरायणता और उसके शौर्य की जिमने सैल्यूकस को पछाडा ही नहीं, वरन् मदेव के लिये भारत पर हमला करने की भावना से उसका मुह मोड दिया। कायरताशून्य हिसा जैन धर्म एक अहिंसक और सर्वपालक धर्म होते हुए भी कायरता की भावनामो वाला नहीं है । इसके विपरीत वह वीरत्व की भावनाओं से पूर्ण उदार धर्म है। इसके प्रतिपालक और प्रवर्तक प्राय क्षत्रिय वीर ही हुए है जिन्होने मर्दव जैन धर्म के मुख्य सिद्धान्तो को पाला । जहाँ उनका यह दृट विश्वास था कि फिली को नताना पाप है वहाँ ये यह भी मानते थे कि किसी के द्वारा सताया जाना भी पाप है। मी गिद्धान्त को उन्होंने कार्यान्वित भी किया । उन्होने सदियो तक भारत पर गालन किया, जिन्तु उनके भागनकाल में किगी भी अन्य राष्ट्र और शासक की हिम्मत न हुई कि वह भारत पर आक्रमण कर सके । यही कारण है कि आज भी उनके शानदार कारनामे और नाम जिन्दा है। जीयो और जीने दो "जीमा और जीने दो" का सिद्धान्त मानव जानि के लिये अमूल्य और एक नई रोशनी देने वाला है। यही कारण है कि हमारा भारत ससार में इस सिद्धान्त को पूरा करने में अग्रणी रहा है । यही सिद्धान्त आज मे बहुत ममय पूर्व भगवान महावीर ने अपने मदेश मे दिया और इसी सिद्धान्त को प्रमारित करने के लिये विदेशो में भी हमारे बडे-बडे पूर्वज गये जिसका प्रभाव और स्मृति माज भी विदेशों में शेप है जिसका प्रमाण इतिहास के पृष्ठो मे दृष्टिगोचर है। वापू और हिसा सकडो वर्षों की दामता के बाद हमारा देश स्वतन्त्र हुआ है। इस स्वातन्त्र्य आन्दोलन में जैन समाज का वही अहिंसा-सिद्धान्त एक गस्त्र है जिसे भारत के देश-भक्तजनो ने घर-घर पहुचाने की भरमा कोशिश की । बापू और देश के अनेक उत्साही देश-सेवको के सतत प्रयल से यह अहिंसा-शस्त्र कारगर हुमा । हम प्रतिज्ञा करें इसी अहिमा के प्रवर्तक और उद्घोपक प्रात स्मरणीय भगवान महावीर का जन्म दिवस हम प्राज २८ मार्च, १९५३ को मना रहे है। देखना अव यह है कि इस शुभ अवसर पर, जब कि हम स्वतन्त्र है, हमारा कर्तव्य क्या हो जाता है ? केवल जलस या जलसे मात्र से तो हमारे काम की इतिश्री नही हो जाती है, अपितु एक जिम्मेदारी और भी बढ जाती है, और [१९१
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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