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________________ रक्षा भी उतनी ही भली प्रकार हो सकेगी । यही स्थिति समाज के निर्माण मे वैश्य वर्ग की बतलाई गयी है । कृषिप्रधान प्राचीन अर्थ व्यवस्था मे वैश्य वग का महत्व यदि उक्त कथन से स्पष्ट है, तो वर्तमान युग की उद्योग-प्रधान अर्थ व्यवस्था मे इसमे और भी अधिक अभिवृद्धि हो जाने की बात सहज ही समझी जा सकती है । आज किसी भी समाज और देश की शक्ति, सम्पन्नता, सुरक्षा और गौरव उसके व्यापार-कार्य मे सलग्न व्यक्तियो अर्थात् वैश्य वर्ग की सफलताओ पर पूर्णतया निर्भर करते है । इस कथन के अभिप्राय को पूरी तरह समझने के लिए इस सम्बन्ध मे विस्तार से विचार आवश्यक है | तनिक सोचिए तो सही कि देश की जनता अपनी दैनिक विविव श्रावश्यकताओ अर्थात् भोजन, वस्त्र, वाहन और अन्य सामग्री की व्यवस्था के लिए किस वर्ग पर निर्भर है। स्पष्ट रूप से यह कार्य वैश्य वर्ग द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है । फिर विदेशी मुद्रा से देश के कोश को समृद्ध बनाने वाला और विदेशो को नाना प्रकार की प्रावश्यक वस्तुए प्रदान कर इस प्रकार देश के गौरव और शान को चार-चान्द लगाने वाला वर्ग कौन-सा है ? यह कार्य भी निर्यात व्यापार के लिए नाना प्रकार की वस्तुएँ तैयार कर वैश्य वर्ग सम्पन्न करता है । शान्तिकाल मे देश की इतनी महत्वपूर्ण सेवा करने के उपरान्त युद्धकाल मे देश की रक्षा का वास्तविक उत्तरदायित्व किस वर्ग पर है ? युद्ध के लिए शस्त्रास्त्रो, तोपो, टैंको, अरणु हथियारो, गोला-बारूद, विमानो, जलपोतो और वाहनो, विभिन्न परिधानो और अन्य सामग्री का निर्यात कौन करता है ? स्पष्ट रूप में यह कार्य भी वैश्य वर्ग द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है। इस वर्ग द्वारा चलाए जाने वाले जो कलकारखाने शान्तिकाल मे विविध प्रकार की उपयोगी सामग्री तैयार करते है, वे ही युद्धकाल मे लडाई के उपयोग मे आने वाले विविध प्रकार के पदार्थों का निर्माण करते हैं । समाज की रीढ़ की हड्डी ऐसी दशा मे समाज मे आज वैश्य वर्ग का वही स्थान है, जो शरीर मे रीढ की हड्डी का है। प्रत्येक समाज का सहारा अथवा प्राधार वैश्य वर्ग वन गया है। इसी नीव पर समाज का समूचा भवन खडा किया जाता है। अपने कार्य मे वैश्य वर्ग के निपुण और योग्य होने की दिशा मे समाज वडे-वडे भूचालो और तूफानो को सुगमता से फेल जाता है । दृढ प्राधार पर स्थापित इस प्रट्टालिका को कोई डगमगा नही सकता। इस प्रकार का समाज अथवा देग चिरकाल तक फलताफूलता रहता है । नीव पक्की होने के कारण ऐसे भवन का निरन्तर विस्तार सम्भव है। नयी मजिले वनती और वढती रहती है। पुरानी मजिलो को सुवार कर, उनका नित्य नया श्रृंगार करके, नयी-नयी समयोचित सुविधाओं का सदा विकास होता रहता है। इस प्रकार समाज चिरस्थायी रूप धारण कर लेता है । आज जो देश और समाजें उन्नत और स्थायी हैं, उनके इतिहास की मामूली-सो छानबीन करने से इस कथन की सत्यता का परिचय हम प्राप्त कर सकते है । इग्लंड लगभग दो नौ वर्ष [ १७७
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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