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________________ नये सुधार कार्य किन्तु सामाजिक कार्यों की कभी समाप्ति नहीं होती। यदि कार्यकर्तामो मे जागरूकता बनी रहे तो अनेक नये कार्य उपस्थित होते रहते है । काल और स्थान भी भनेक नये कार्यों की सृष्टि करता है । फलस्वरूप आज भी अनेक कार्य परिपद के सम्मुख है। पिछले ३७ वर्षों के समान यदि जैन जनता का परिपद को सहयोग प्राप्त होता रहा, तो इसमे सन्देह नही कि परिपद के कार्यकर्ता माज असंभव प्रतीत होने वाले अनेक कार्यों को अगले कुछ वर्षों मे उसी प्रकार सहज और सभव वना लेंगे, जिस प्रकार कि भूतकाल के अनेक कार्यों को सर्वथा स्वाभाविक बना देने मे उन्होने सफलता प्राप्त की है। * * * * देव-शास्त्र-गुरु हमारे प्राराध्य मगलम् भगवान् वीरं मंगल गौतमी गणी। मगलम् कुन्दकुन्दायो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ मगलमय भगवान महावीर स्वामी, उनकी वाणी-दिव्यध्वनि के विस्तारक गौतम गणघर, तथा वाणी को लिखित रूप देने वाले गुरु आचार्य कुन्दकुन्दादि तथा इन सबके द्वारा प्रचालित मगलमय जैनधर्म को साष्टाग नमस्कार करता हूँ जिसकी अमल विमल सुखद छाया मे हम भव-भव के सताप मेटते भा रहे है, जन्म-मरण के अनेको जन्माणित दुःखो का भार ढोते हुए भी इस मगलमय धर्म की शरण पाने से अपना सौभाग्य समझ रहे है। कठिन कार्यों के विपाक होने पर उनकी होली जला निर्वाण प्राप्त करने की आशा से निर्वाण के बाद भगवान को भी भूल जाने वाले हैं। "तव पद मेरे हिय में मम तेरे पुनीत चरणो मे। तबलो लीन रहे प्रभु | जबलो प्राप्ति न भुक्तिपद की हो ॥" यह है वह परमपावन जैनधर्म-देव, शास्त्र, गुरु के द्वारा दिया गया एक अमोघ वरदान, जिसका आज हम दुरुपयोग कर रहे हैं ! 'पतित पावन' के 'भपावन' होने की प्राशका तथा मय दिखलाकर उसके मूल-देव, शास्त्र और गुरु को विकृत रूप दे रहे हैं। अब क्रमश एक-एक को ले लीजिए देव जिस वीतराग, परम दिगम्वर नाशादृष्टिधारी शान्तछवि के दर्शन से प्रात्मा मन्त्रमुग्ध हो जाता है, विश्व के विरोधी प्राणी वैरभाव छोड साथ-साथ विचरने लगते हैं, उस पवित्र देव को [१७१
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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