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________________ दस्सा-पूजन अधिकार का प्रस्ताव पेश किया गया । प्रतिक्रियावादियो ने सैकड़ो की सख्या मे सम्मेलन स्थल मे पहुचकर तीन घन्टे तक लगातार हुल्लड मचाया और स्वयसेवको को मारा-पीटा । इस अवसर पर छुरे भी निकाले गये । किन्तु परिपद के नेताओ और स्वयसेवको के धैर्य और अहिंसामयी नीति की अत मे विजय हुई। उस सम्मेलन मे दस्सा-पूजन अधिकार जैन जनता ने स्वीकार कर लिया । जैन एकता को दृढ करने वाले इस महान कदम को "जाति-पात लोपक" का विशेषण दिया गया । किन्तु वास्तविकता यह है कि प्रतिक्रियावादियो ने जो प्रभुत्व जैन समाज पर स्थापित कर लिया था, इस ऐतिहासिक कदम ने उसे नूर-चूर कर दिया । अनेक स्थानो मे दस्सा - पूजन करने लगे । इसने भी बडी बात यह हुई कि सुधार की भावना जैन-जगत मे घर कर गई इसी का यह परिणाम हुआ कि १९४१ मे झ सी में हुए परिपद के अधिवेशन मे मनोनीत सभापति सेठ वैजनाथ जी सरावगी ने अपना मत जब कुछ सुधारो के विरुद्ध प्रकट किया, तो जनता इस बात से भडक उठी । उसने तत्काल सुधारक श्री बालचन्द को सभापति चुनकर मच पर बिठा दिया । श्राज सभी व्यक्ति, रूढिवादी, प्रतिक्रियावादी और अनुदार पक्ष नक, जैन दस्सानो और विनेयकवारो के पूजन अधिकार के समर्थक है । इस बात को समय के परिवर्तन और परिषद के सस्थापको के साहस और सूझबूझ का चमत्कार घोषित करने के अतिरिक्त क्या कहा जा सकता है । परिपद के कार्यकर्ताओ को उक्त विशेषण देने का एक अन्य कारण जैन समाज में होने वाले अन्तर्जातीय विवाह है । अब सभी जैन-बन्धु इस प्रकार के विवाहो मे कोई दोष नही समझते है और मैकडो अन्तर्जातीय विवाह हो रहे है, किन्तु ३७ वर्ष इस बात को जिह्वा पर लाना भी अनर्थं समझा जाता था । इस प्रकार के विवाह करने का साहस तो दूर ऐसी बात कहने वाले तक को "जाति-पाँत लोपक" की सज्ञा दी जाती थी। परिपद के कार्यकताओ ने इस प्रकार के दुष्तामो को अपने लिये स्वीकार करते हुए युगो मे समाज को जकड़ी हुई रूढियो और कुप्रथानो से उसे मुक्त कर दिया । पुरानी जजीर जर्जरित होकर एक-एक कर टूटने लगीं । परिपद के कार्यकर्ताओ के परिश्रम, प्रचार और साहस के फलस्वरूप जिन सामाजिक बुराइयो का अन्त हुना, उनमे मरण भोज की प्रथा प्रनुखतय है । महगाव काण्ड के सम्वन्ध मे अपूर्व, तीव्र एव प्रभावपूर्ण श्रान्दोलन चला कर मूर्तिया वरामद करायी और इस प्रकार जैन मंदिरो की रक्षा के सम्बन्ध मे भी इन लोगो ने जैन जनता को सावधान किया । इन घटनाओ से परिपव का लोपकात स्थान पर रक्षक रूप ही दृष्टिगोचर होता है । विधवा-विवाह रचायक " किन्तु परिषद के कार्यकर्ताभो को सबसे अधिक दिलचस्प जो विशेषण दिया गया, वह विधवा विवाह रचायक है । परिपद के मच से विधवा विवाह का प्रचार कभी नही किया [ १६
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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