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________________ पितृतर्पण, श्राद्ध, पिण्डदान आदि से सम्बंधित ब्राह्ममणीय सिद्धान्तो का विरोध करते है । उनका ऐसा कोई विश्वाम नही है कि श्रीरम या दत्तक पुत्र पिता का प्रात्मिक हिन (पितृ उद्धार श्रादि ) करता है । अन्त्येष्टि के सवच मे भी ब्राह्मणीय हिन्दुओ से वे भिन्न है और शवदाह के उपरान्त ( हिन्दुओ की भाँति ) कोई क्रियाकर्म प्रादि नही करते। यह सत्य हैं, जैसा कि आधुनिक अनुसंधानो ने सिद्ध कर दिया है, कि इस देश मे जैन धर्म ब्राह्मण धर्म के उदय के अथवा उसके हिन्दू धर्म में परिवर्तित होने के बहुत पूर्व में प्रचलित रहा है। यह भी सत्य हैं कि हिन्दुओ के साथ, जो कि इस देश मे बहुसस्यक रहे हैं, चिरकालीन निकट सम्पर्क के कारण जैनो ने अनेक प्रथाएँ और मस्कार भी जो ब्राह्मण धर्म से मविन है तथा जिनका हिन्दू लोग कट्टरता मे पालन करते है, अपना लिए है ।" (प्रान इडिया लॉ रिपोर्टर, १९३९, बम्बई ३७७ ). स्त्र प जवाहरलाल नेहरू ने भी अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'डिस्कवरी ग्राफ इडिया' मे लिखा है कि "जैन धर्म और बौद्ध धर्म निचय से न हिन्दू धर्म है और न वैदिक धर्म भी, तथापि उन दोनो का जन्म भारतवर्ष मे हुआ और वे भारतीय जीवन, सस्कृति एव दार्शनिक चिन्तन के अभिन्न श्रविभाज्य अग रहे हैं । भारतवर्ष का जैन धर्म अथवा बौद्ध धर्म भारतीय विचारधारा एव सभ्यता की शान -प्रतिशत उपज है, तथापि उनमे मे कोई भी हिन्दू नहीं है । अतएव भारतीय संस्कृति को हिन्दू मस्कृति कहना भ्रामक है ।" ऐतिहासिक दृष्टि से भी, वेदी तथा वैदिक माहित्य में वेदविरोधी ब्रात्यां या श्रमणी को वेदानुयायियो - ब्राह्मणो यादि से पृथक सूचित किया है। अशोक के शिलालेखो (धरी गती ई० पू० ) मे भी श्रमणो और ब्राह्मणो का सुस्पप्ट पृथक-पृथक उल्लेख हैं । यूनानी लेखको ने भी ऐसा ही उल्लेख किया और खारवेल के शिलालेख में भी ऐसा ही किया गया । २री गती ई० पू० मे ब्राह्मण धर्म पुनरुद्धार के नेता पतन्जलि ने भी महाभाष्य मे श्रमणो एव ब्राह्मणो को दो स्वतंत्र प्रतिस्पर्द्धा एव विरोधी समुदायों के रूप मे कथन किया। महाभारत, रामायण, ब्राह्मणीय पुराणो, स्मृनियो आदि से भी यह पार्थक्य स्पष्ट है । ईस्वी सन् के प्रथम महस्राब्द मे स्वय भारतीय जनो मे इस विषय पर कभी कोई डाका, भ्रम या विवाद ही नही हुया कि जैन एव ब्राह्मणधर्मी एक हैं- यही लोकविश्वास था कि स्मरणानीत प्राचीन काल से दोनो परम्पराएं एकदूसरे से स्वतंत्र चली चार्ड है। मुसलमानो ने इस देश के निवामियों को जातीय दृष्टि से मामान्यतः हिन्दू कहा, किन्तु शीघ्र ही यह शब्द व वैष्णवादि ब्राह्मणधर्मियो के लिए ही प्राय प्रयुक्त करने लगे क्योकि उन्होंने यह भी निश्चय कर लिया था कि उनके अतिरिक्त यहाँ एक तो जैन परम्परा है जिसके अनुयायी अपेक्षाकृत अत्पसख्यक हैं तथा अनेक बातो मे वाह्यत उक्त हिन्दुओ के ही मदृश भी हैं, वह एक भिन्न एव स्वतंत्र परम्परा है। मुगलकाल मे श्रकवर के समय से ही यह तथ्य सुस्पष्ट रूप में मान्य भी हुआ । अग्रेजो ने भी प्रारभ मे, मुसलमानो के अनुकरण से, सभी मुस्लिमनर भारतीयो को हिन्दू समझा किन्तु गीघ्र ही उन्होने भी कथित हिन्दुओ और जैनो की एक-दूसरे मे स्वतंत्र संज्ञाएं स्वीकार कर ली । सन् १८३१ मे ब्रिटिश शासन में भारतीयो की जनगणना लेने का क्रम भी चालू हुग्रा, मन् १८३१ में तो वह दणाब्दी जनगणना क्रम मुव्यवस्थित रूप से चालू हो गया। इन गणनाओ में १८३१ से १८४१ तक बराबर हिन्दुग्रो १४८ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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