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________________ आन्दोलनकारी लालाजी श्री बलभद्र जैन भागरा लाला तनसुखराय समाज के उन गिने-चुने । ५० बलभद्रजी जैन समाज के ऐसे नव- | मार्वजनिक कार्यकर्ताओ मे से थे, जिनकी पीढी के विद्वान् है जो कलम और वाणी सूझ-बूझ, कार्य-क्षमता और लगन पर किसी दोनो के धनी है। पिछले दो वर्षों से भारतसमाज को गर्व हो सकता है। उनका सारा गौरव आचार्य रल देशभूषणजी महाराज जीवन सार्वजनिक-सेवा मे ही वीता। राष्ट्र-सेवा के सानिध्य में रह कर आपने अच्छी कीर्ति के क्षेत्र मे उतर कर उन्होने अपने सार्वजनिक प्राप्त की है। इससे आपका यश बढा जीवन का प्रारम्भ किया। इसके लिए उन्हे है। हम आशा करते है कि समाज ऐसे कई बार कारावास का दण्ड भोगना पड़ा। प्रचारकीय भावना सम्पन्न के विद्वानो को किन्तु जीवन के अन्त तक उन्होने राष्ट्र-सेवा | सहयोग देकर उनसे यथोचित लाभ उठावे । के व्रत से मुंह नही मोडा। वे प्रगतिशील विचारो के समर्थक थे। रुढिवादिता से उन्हे घृणा थी। वे समाज का नव निर्माण करने के हामी थे । वे चाहते थे कि समाज धर्म और सस्कृति के पुरातन प्रादर्शो पर कायम रह कर अपने कदम युग के साथ बढाये । सकीर्णताओ और निरर्थक बन्धनो मे जकडकर समाज की प्रगति को जिन मान्यताप्रो ने अवरुद्ध कर दिया है उन मान्यताओ को पुरातनता की दुहाई देकर कायम रखना वे कभी स्वीकार नही कर सके । रूढिगत मान्यताओ के पुनर्मूल्याकन और उपयोगितावाद की नीव पर उनके पुनरुद्धार में उनकी गहरी आस्था थी। उनके काम करने का अपना एक ढग था । वे जन-मानस को आन्दोलित करने मे कुशल थे। सघर्षों को स्वस्थ रूप देना, आन्दोलनो को सचालन करना, विषम परिस्थितियो मे अविचल रह कर सूझ-बूझ से काम लेना ये उनकी अपनी विशेषताएं थी। और इसे मानने मे वे वास्तविक नेता कहे जा सकते है। आन्दोलन प्रारम्भ करने से पूर्व वे उसके परिणामो पर भली-भाति विचार करते थे । उसकी रूपरेखा बनाते समय भली-भाति निरीक्षण कर लेते थे कि छिद्र तो नही रह गया। तब वे समाज मे फीलर फेक कर समाज के मानस मे एक परिस्पन्द पैदा करते थे। धीरे-धीरे समाज की चेतना उबुद्ध करके वे उस पर छा जाते थे। तब वे अनिवार्य समाज के लिए । इस प्रकार का ढग उनके प्रान्दोलन करने का । इसीलिए उन्होने जो आन्दोलन उठाया, उसमे पूर्णत सफल हुए। जिस कार्य को भी उठाया, उसीको एक आन्दोलन का रूप दे दिया और समाज के मानस को उस पर विचार करने, उससे प्रभावित होने और उसमे सक्रिय सहयोग देने को विवश कर दिया। यदि उन्हे आन्दोलनकर्ता कहा जाय तो उनका सही चित्र सामने आ सकता है। [११८
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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