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________________ स्वमरानन्द | (६१) घमसान युद्ध फिर प्रारम्भ हो जाता है । उघर मोहके वाण, इधर वीरके विशुद्ध परिणामरूपी वाण दोनों खूब चलते हैं। परन्तु यह वीर, घीरवीर तुरंत ही अपने गुरु विद्याधरको याद करता है । ज्यों ही वे आते हैं, अपूर्व विशुद्ध परिणामोंकी सहायता देते हैं कि यह प्रमादीसे अप्रमादी हो जाता है और फिर सातवीं भूमि पा लेता है । वे विचारे ११ सुभट अपनाता मुंह ले रह जाते हैं। अपना बल चलता न जान दीन उदास हो जाते हैं । यह धीरवीर निजगुणानंदी अदभुत स्वादके अनुरागमें मस्त हो जाता है, सब सुध बुध मानो विसरा देता है और यहांतक स्वानुभूतिसे एकमेक रमणता पा सेता है कि इसके सारे अंग प्रत्यंग वचन मन सच इससे मानों परे हो जाते हैं । यह कायोसर्ग में डंटा हुआ आप ही आपको अपने से ही अपने में अपने लिये देखा करता है और उसी समय अपने से ही उत्पन्न स्वामृत रसको पिया करता है । धन्य है यह स्वरूपानन्दी ! इस स्वसमरमें दृढ़तासे लवलीन यह भव्य प्राणी सर्व आकुलताओंसे पृथक् निराकुल स्वसमरानन्दको भोग परमाल्हादित हो रहा है । ( ३१ ) मोह राजासे युद्ध करते २ यद्यपि चिरकाल हो गया है, तौ भी साहसी चेतन अपने बलमें पूर्ण विश्वास रखता हुआ मोहके विध्वंश में पूर्णतासे कमर कसे हुए अपनी सातवीं गुणस्थान रूपी भूमिमें बैठा हुआ अपने उज्वल परिणामोंकी सेनासे मोहके कर्म रूपी दलको निर्वक बना रहा है । इस समय यह वीर अपने स्वरूपमें व अपनी श्रद्धा में अच्छी तरह तन्मय है । जगत्के यो
SR No.010057
Book TitleSwasamarananda athwa Chetan Karm Yuddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages93
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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