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________________ एकाएक दबक नामें साहस भी त्याग, स्वसमरानन्द । (१०) मुक्त हो जाता है। मोहके प्रबल योद्धारूपी कपायोंके द्वारा त्रासित किये जानेपर भी यह अचल रहता है और प्रत्याख्याना. चरणी चारों कषायोको भी विध्वंस करनेका उपाय करता है। भव-विकारोंसे रहित, निन सत्तावलम्बी, अनुभव-रसके पानेसे बलिष्ठ भावको धारण करने वाला धर्मध्यानकी महान् खड्ग अत्यंत शांतता और धीरताके साथ चलाता है, और वाद-रेत समान कषायोंके चारों योद्धाओंको ऐसा डराता तथा घबड़ा देता है कि वे एकाएक दबके बैठ जाते हैं । उनका उपशम होना कि इस वीरकी शुभ भावकी सेनामें साहस और भानन्दकी ऐमी वृद्धि होती है कि यह वीर झटसे लंगोटकी भी त्याग देता है। लंगोटके त्यागते ही सातवें गुणस्थानमें उल्लंघ जाता है और तर मुनिके रूपमें सर्व परिग्रह-रहित हो आत्म-ध्यानके विचारोंको इतनी मजबूतीसे अपने आपमें और अपनी अज्ञामें कायम रखता है कि छठे गुणस्थानी मुनीकी ऐसी प्रमाद रहित और सावचेतीकी अवस्था नहीं होती। परन्तु इस अवस्थामें इस आत्मवारको नो परमाल्हादकी छठा और उन्मत्तता आती है, उसके रसमें वह इस कदर बलके साथ निमन्न हो जाता है कि इसका कदम सात. में एक अंतर्मुहूर्त ही ठहरने पाता है। प्रमादके माते ही यह छठी भूमिकामें गिर जाता है। तो भी यह साहसहीन नहीं होता । अपनी कमरको दृढ़ बांध कर्मोंसे लड़ता ही है । वास्तवमें निन जीवोंको साध्यकी सिद्धि करनी होती है, वे जीव अपने साधनमें कभी भूल नहीं करते । जिनको किसी अमिट संयोग प्राणप्रियाके दर्शनों की और उसको अर्धाङ्गिणी बनानेझी कामना
SR No.010057
Book TitleSwasamarananda athwa Chetan Karm Yuddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages93
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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