SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजपूताने के जैन-चीर भी ऐसी विपरीत स्थिति में कर्माशाह ने शत्रुक्षय का जीर्णोद्धार कराया, इससे उसकी निर्भयता, राज्यप्रतिष्ठा और जैनधर्म के प्रति अट श्रद्धा का परिचय मिलता है। . . . ... ... . [१३ जनवरी सन् ३३] . .... ... आशाशाह की वीरमाता ... जननी जन तो भक्त जन या दाता या सूर । . नहीं तो रहना वांझ ही वृथा गवा मत नूर॥ . ... .. .. . . . . . . . .. . . -अज्ञात . शाशाशाह की वीरमाता का नाम ऐतिहासिक विद्वानों को ... ज्ञात नहीं, वह कीमती मोती की भान्ति अन्तस्थलमें छुपा हुआ है, फिर भी उसकी प्रखर आमा संसार को वलात् अपनी ओर आकर्षित कर रही है। अपने जीवन में उसने क्या क्या लोकोपयोगी और वीरोचित कार्य किये ? उसका निर्मल चरित्र और कोमल स्वभाव कितना बढ़ा चढ़ा था ? वह सब कुछ अन्धकार में विलीन हो गया है। तो भी उसके जीवन का केवल एक कार्य ही ऐसा है जो हमारी आँखें खोलता है और उसकी मनोवृत्ति पर काफी प्रकाश डालवा है । पूर्व युग में सर्व साधारण. के विषय में कुछ लिखा जाय, ऐसी भारत में प्रथा ही न थी, केवल राजे महाराजों के गीत गाये जाते थे, यही कारण है कि हम इस वीर माता के लोकोत्तर कार्यों से अनभिज्ञ हैं। हमें अपनी इस अज्ञानता पर तरस आता है।
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy