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________________ ३३८ राजपूताने के जैन-धीर है कि, राजपूताने की रियासतों का अस्तित्व यवन-शासनकाल में . उन जैन वीरों के ही बाहु-बल से ही रह सका था। उन वीरों के वंशधर उन सनदों को प्रकाशित करना तो दरकिनार. अपने राजाओं के क्षोम के भय से दिखाना भी नहीं चाहते। " पृ० ११५ पर उल्लिखित राणा राजसिंह की ओर से निकली हुई विज्ञप्ति को ही लीजिये । यह उनका पुराना हक क्यों है ? यह हक्क कैसे कब और क्योंकर प्राप्त किया गया ? "जैनस्थान के शरणागत होने पर राजद्रोही भी न पकड़ा जाय" इतना अधिकार माम करलेना क्या साधारण बात है ? राजपूताने के इन जैन-चीरों के सिवा और किसी ने भी ऐसी सनद प्राप्त की हो, ऐसा श्रमी तक देखने में नहीं आया । आज भी इम सभ्यता के युग में बड़े बड़े देशभक्त, राजभक्त धर्मभक्त मौजूद है, पर क्या किसी भी धार्मिक सम्प्रदाय को यह अधिकार प्राप्त है ? राणा राजसिंह ने यह विज्ञप्ति जैनियों के किस बलिदान से प्रभावित होकर लिखी, . इसका उत्तर देने में इतिहास के पृष्ठ असमर्थ है, केवल अनुमान करने से ही सन्तोष किया जा सकता है ! .. .... राणा कुम्भा ने गुजरात और मालवे के दोबादशाहों को पराजित करने की स्मृति में नौ मंजिला जयकीर्ति-स्तम्भ बनवाया था। उसपर उन्हें कितना अभिमान होगा यह लिखने की चीज नहीं। राममोही, चोर, लुटेरे भी जैन उपाय से गिरफ्तार नहीं किये ऑय. वध के लिये बना हुआ पशु यदि जैनउपाय के आने से निकले तो वह फिर.. न मारा जाय-यह उनका पुराना हल है आदि।
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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