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________________ राजपूताने के जैन चीर होकर उन सब निर्वासित सामन्तों को उनके देश व जागीर मेहता'.. सालिमसिंह ने रावल मूलराज से दिलवा दिये । निर्वासित आज्ञा और देश वापिस दिला देने के बाद भी विद्रोही सामन्त शान्ति से न बैठे रहे। वे रावल मूलराज के पुत्र और पौत्रों को लेकर विद्रोह की अग्नि भड़काने के प्रयन्त में लगे रहे और साथ ही सालिमसिंह के नाश का भी षड्यंत्र रचने लगे। जब उसने राज्य को और अपने को इस प्रकार खतरे में पड़ा देखा तो उसकी पुरानी प्रतिहिंसा की आग फिर प्रज्वलित होगई । अन्त में उसने लाचार होकर राज्य के और अपने पुराने शत्रुओं को संसार से बिदा करके अपने पिता के वध का बदला लिया। __यद्यपि टॉड साहब ने सालमसिंह के उक्त कार्य की निन्दा की है, पर इस पर यदि तनिक विचार किया जाय तो मालूम होगा कि प्राचीन समय में ऐसा सदैव होता आया है । जो.पिता के घातक से बदला नहीं ले सकता था, वह सुयोग्य पत्र कहलाने का अधिफारी ही नहीं था। इसी सालिमसिंहने अंग्रेजों के साथ संधि करने में बड़ा विरोध किया था। [३१ जनवरी सन् ३३१
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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