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________________ बच्छावतों का उत्थान और पतन २५९ में विराजमान किया । करमचंद ने बादशाह से जैनियों के लिये अनेक प्रकार के स्वत्व और दस्तूर प्राप्त कर लिए थे। उसने श्रोसवाल जाति में भी बहुत से उपयोगी और आवश्यक सुधार किये थे । अकवर सन् १६०५ ईस्वी में मर गया और करमचंद भी उसकी मृत्यु के बाद बहुत दिनों तक जीवित नहीं रहा। जब रायसिंह नवीन सम्राट् (जहाँगीर) को आदाब बजा लाने के लिए देहली गया था उस समय करमचन्द घर में पढ़ा हुआ मृत्यु के सन्निकट था । रायसिंह करमचन्द को देखने के लिए गया । उसे मरते देख कर उसने उसके लिए बाहरसे बड़ी सहानुभूति दिखलाई । करमचन्द के लड़के भागचन्द और लक्ष्मीचन्द उसकी सहानुभूति दर्शक चिकनी. चुपड़ी बातों में गये और उन्होंने अपने पिता करमचन्द से कहा . कि देखा पिता जी, महाराजा कैसे हितैपी और दयालु हैं । मृत्यु - शय्या पर पड़े हुए बाप ने क्रोध की दृष्टि से अपने लड़कों की ओर देखा और अस्पष्ट शब्दों में उनसे कहा कि - "लड़को, तुम अभी छोटे हो, तुमको अभी कुछ भी अनुभव नहीं है । खबरदार, खूब होशयार रहना । ऐसा न हो कि इसके भूठे आँसुओं को देखें धोखा खाजा और बीकानेर जाने पर राजी हो जाओ । इस समय मैं गौरव के साथ मर रहा हूँ, यह देखकर ही राजा को दुःख हो रहा है।" इन शिक्षाप्रद और चेतावनी के शब्दों को कह कर करमचंद की अजर-अमर आत्मा ने स्वर्गलोक को प्रस्थान किया। राजा ने करमचंद के घराने के लिए बहुत ही शोक और सहानुभूति प्रगट की और उसके लड़कों को बीकानेर लेजाने के लिए
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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