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________________ जोधपुर राजवंश के जैनवीर २१५ प्रसन्न होकर १५ हजार की जागीर इनको प्रदान की । सं० १८२२ में इन्होंने दक्षिणी खाजू के साथ युद्ध किया और उसे जीतकर उसकी सेना की सामग्री को लूट लिया । सं० १८३० के फाल्गुण सुदी ३ को इनको मुसाहवी का अधिकार मिला तथा राव की. पदवी के साथ हाथी, पालकी का शिरोपाव मिला और चैत्रवदी सप्तमी के दिन महाराज ने २१०००) की जागीर प्रदान की। घर्तन देखकर यशवन्तसिंह क्रुद्ध होगये । राज-माता भी दासियों, पर कृत्रिम क्रोधित होकर बोली-"देखतीनहीं हो,मेरा बेटातोपूर्व ही लोहे से डरकर यहाँ भाग आया है, फिर लोहा ही उसके सामने ला रक्खा!" माता के इस व्यंग से यशवन्तसिंह कटसे गये।राजमाता अपने उपदेश का अंकुर जमने योग्य भूमि देखकर बोली में तू मेरा पुत्र नहीं । तुमे बेटा कहते हुये मैं मारे आत्म-पलानि के गड़ी जा रही हूँ । यदि तू मेरा पुत्र होता तो शत्रु को पराजित किये विना न आता। तुम में मान नहीं, साहस, नहीं अभिमान नहीं, तू कुलकलंकी है,कायर है,शिखण्डी है, तूने राजपूत कुल में जन्म लेकर, इस के उज्ज्वल मुख में कलंक लगा दिया। बहू का आत्माभिमान देखकर मेरी छाती गर्व से फल उठी है, किन्तु साथ ही दारुण अपमान के मारे मैं मरी जारही हूँ। एक तो वह वीर-प्रसवा क्षत्राणी, जिसने ऐसी वीरवाला को जन्म दिया, और एक मैं जो तेरे जैसे कुलंगार को उमन किया! धिकार है मेरे पुत्र प्रसव करने को! अच्छा होता जो वन्ध्या होती अथवा तेरी जगह ईट-पत्थरं प्रसव करती।जो मकानों के तो काम
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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