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________________ १५८ राजपूताने के जैन-चीर मेहता सरीपतजी सरवणजी के पुत्र सरीपतजी को राणा राहपजी ने 'मेहता' की पदवी दी। इनके वंश वाले शिशोदिया मेहता कहलाते हैं । सरीपतजी के वंश वाले शिशोदया मेहता महाराणा उदयसिंहजी के समय में चित्तौड के अन्तिम (तीसरे)शाका में लड़े और काम आये, सिर्फ मेहता मेघराजजी बच गये, जो राणा उदयसिंह । जी के साथ उदयपुर चले आये। मेहता मेघराजजी मेहता मेघराजजी ने उदयपुर में श्री शीतलनाथजी का मन्दिर तैय्यार करवाया और टीम्बा (महतों का टीबा) वसाया। मेहता मेघराजजी की चौथी पाँचवीं पीढी में मेहता मालदासजी हुए जिन्होंने मरहटों के साथ लड़कर बड़ी बहादुरी दिखलाई। मेहता मालदासजी. महाराणा भीमसिंहजी के समय में मरहटों का जोर मेवाड़ में बहुत बढ़ा चढ़ा था। मेवाड़ का प्रधान उन दिनों में सोमचन्द गाँधी था। इसने मरहटों को मेवाड़ से बाहर निकालने का निश्चय किया। इसने पहले राजपूताने के राजाओं को मरहटों से लड़ने के लिये भड़काया । वि० सं० १८४४ (ई० स० १७८७) में जब मरहटा लालसोट की लड़ाई में हार चुके तब सोमचन्द ने यह सुअवसर देखकर, उसी वर्ष मार्गशीर्ष में चूंडावतों को उदयपुर की रक्षा का भार सौंप कर, मेहता मालदास को मेवाड़ तथा कोटा :
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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