SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजपुताने के जैन वीर सरूपरया वंश • F विक्रम संवत् १२९७ में परम पवित्र वीर भूमि श्री मेदपाट के सिंहासन पर हिन्दु-कुल चूड़ामणि महाराणा कर्णादित्यसिह विराजते थे। उनके तीन पुत्र रामनी माफजो व श्रवणजी केलवेगाँव के पास शिकार करने गये, जहाँ श्री कपिल ऋषि तपस्या करते थे - अकस्मात् उक्त ऋषि शिकार में मारे गये । उनकी स्त्री रंगा जो कुछ दूर ही तपस्या कर रही थी, उनके पास शिकारी कुत्ते ऋषि के मृत शरीर की अस्थियाँ ले गये तब रंगा सती को अपने पति के मरने का हाल मालूम होने पर वह पति की अस्थियाँ लेकर सती होगई और तीनों राजकुमार राजी माफजी व श्रवणजी को शाप दे गई कि तुम्हारे कोढ़ निकलेगा । तद्नुसार कोढ़ निकलने पर बहुत चिकित्सा करने पर भी शान्त न होने से मारवाड़ से यति श्री यशोभद्रसूरि (अपर नाम शांतिसूरि) को कोढ़ मिटाने के लिये बुलाया उनकी चिकित्सा से आराम होने पर राजा ने प्रसन्न हो यतिजी को वर माँगने के लिये कहा, तो चतिजी ने छोटे राजकुमार श्रवणजी को वर में माँगा और उनको श्रावक व्रत धारण करा जैनधर्म अंगीकार कराया । इन्हीं श्रवण . जी से यह वंश चला आ रहा है — इन श्रवणजी की २५वीं पीढ़ी में डूंगरसीजी हुवे - जो संवत् १४६८ में राणा लाखा के कोठार : के दारोगा थे ! राणाजी ने इनको सरोपाव बख्स कर सुरपुर गाँव बख्शा, जो पुर के पास होकर आज दिन तक वहाँ सरूपरयों के १५४
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy