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________________ १३४ राजपूताने के जैन-चीर "अच्छा आप रक्तपात न कीजिये, परन्तु अपना रक्त ही बहाइये". . . "इसका तात्पर्य'! ... "यही कि आपकी विलासिता और अकर्मण्यता से ,जो मेवाड़वासी अनुत्साही होगये हैं-उनके हृदय की वीरता शुष्क हो गई है वह आपके रक्त संचार से फिर हरे भरें हो जायगे"! "तो क्या मैं मर जाऊँ"? "हाँ जो युद्ध नहीं करना चाहता-अहिंसक है वह मात्रभमि के ऋण से उऋण होने के लिये स्वयं उसकी वेदी पर बलि हो जाय"। . "कोई आवश्यकता नहीं, चुण्डावत सरदारं ! इस समय तुम यहाँ से चले जाओ। ___ "मैं नहीं जासकता, इतना कहकर क्रोध में मरे हुये चुण्डावंत सरदार ने सामने लगे हुये विल्लोरी आइने को पत्थर मार कर तोड़ डाला और सै नकों को आक्षा दी कि कर्तव्य-विमुख राणाजीको घोड़े पर विठात्री! आज हम फिर एकवार लोहा बजाकर अपनी मात्र भूमि का मुख उज्ज्वल करेंगे! राणा प्रताप के समक्ष की हुई प्रतिज्ञा आज सार्थक करेंगे। सैनिकों ने राणाजी को बलपूर्वक घोड़े पर बिठा दिया। राणा . जी क्रोध के आवेश में चण्डावत सरदार को राजद्रोही, विश्वासघाती, उद्दण्ड, आदि अनेक उपाधियाँ वितरण करने लगे सैनिकों और सरदारों का इस ओर ध्यान ही नहीं था। उसने बड़े चाव
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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