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________________ १३२ राजपूताने के जैनवीर .. . दिन-रात आमोद-प्रमोद में रहने लगे। उनके पूर्वज क्या थे ?. . इस समय मातृभूमि कैसे संकट में हैं, भारतीय आर्य ललनाओं की कैसी दुरावस्था है ? इस बात की न तो उन्हें कुछ खबर ही थी, और न कुछ चिन्ता। वे दिन-रात महलों में पड़े हुये चापलूसों के साथ अनेक क्रीड़ा किया करते । जो झूठ बोलने में, वात बनाने में, मायाचारी करने में जितना सिद्धहस्त होता, वही उनका प्रेम-पात्र बन सकता था। सच्चे देश-भक्त, वीर, और आन पर मर मिटने वाले उनके यहाँ घमण्डी और पागल समझेजाने लगे। संसार में क्या हो रहा है, इसकी उनको तनिक भी पर्वाह नहींथी। ऐसे ही दिनों में उचित अवसर जान जहाँगीर ने मेवाड़ पर श्रांक्रमणं कर दिया। मातृ भूमि पर संकट आया देख, कुछ वीरसैनिकों का हृदय धक-धक करने लगा। उनके नेत्रों के सामने भविष्य में आने वाले संकट बाइस्कोप के चित्र के समान मूर्ति बन कर नाचने लगे। ऐसे संकट के समय भी राणाजी विलासिता में डूबे हुये, अपने चापलूस मित्रों के साथ अमोद-प्रमोद में मस्त हैं, मेवाड-रक्षक आज भी कायरों की भांति जनाने में घुसे हुये हैं। इन्हीं बातों को देखकर वह मुट्ठीभर राजपूत विकल हो उठे। उनकी हृदय-तन्त्री कर्तव्य-पालन करने के लिये बार२ प्रेरित करने लगी। शालुम्बा सरदार वीर चुण्डावत को राणा प्रताप की कही हुई बात इस समय बिस्कुल ठीक ऊँचने लगी। इसी समय उसे अकस्मात प्रताप के सामने की हुई प्रतिज्ञा याद हो आई। . वह मेवाड़ के वीर सैनिकोंकी एक टोली बनाकर राणाजी के महलों : '
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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