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________________ ११६ राजपूताने के जैन-वीर (३) राजद्रोही, लुटेरे और काराग्रह से भागे हुये महापराधी को जो जैनियों के उपासरे में शरण लें, राज-कर्मचारी नहीं पकड़ेंगे । (४) फ़सल में कूँची (मुट्ठी), कराना की मुट्ठी, दान करी हुई भूमि धरती और अनेक नगरों में उनके बनाये हुये उपासरे क़ायम, रहेंगे । (५) यह फरमान यति मान की प्रार्थना करने पर जारी किया गया है, जिसको १५ बीघे धान की भूमि के और २५ मलेटी के दान किये गये हैं । नीमच और निम्बहीर के प्रत्येक परगने में भी हरएक जाति को इतनी ही पृथ्वी दी गई है अर्थात् तीनों परगनों में धान के कुल ४५ बीघे और मलेटी के ७५ बीघे । इस फरमान के देखते ही पृथ्वी नाप दी जाय और देदी जाय और कोई मनुष्य जातियों को दुःख नहीं है, बल्कि उनके हकों की रक्षा करे । उस मनुष्य को धिक्कार है जो, उनके हकों को उलंघन करता है। हिन्दु को गौ और मुसलमान को सूअर और मुदारी की कसम है। (आज्ञा से ) संवत् १७४९ महा सुदी ५ वीं ईस्वी० सन् १६९३ शाह दयाल (मंत्री)
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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