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________________ . .. १०२ राजपूताने के जैन चीर संघवी दयालदास . तो देखत तुव भगिनि के, बचत पामर केसः। ". जानि परत, या वाहु में, रखौ न वलको लेस । निज चोटी-बेटीन की संके राखि नहि लाज। धिकधिक ठाढ़ीछए,धिक धिक डाढ़ी आज॥ -वियोगीहरि . शान्ति और सब की भी कोई सीमा है। घर में अन्न नहीं व्रत करो, जेब में पैसा नहीं सन्तोष करो, हाथ में शक्ति नहीं, इस लिये क्षमा करो, कुछ कर नहीं सकते, इस लिये शान्त रहो यह आदर्श भीर, अकर्मण्य कापुरुषों का होसकता है। किन्तु जिनके मुंह पर मूंछ और छाती पर बाल हैं अथवा जिनके पहलू में दिल और दिल में तड़प, मस्तक में आँख और आँखों में गैरत का अंश वाकी है, उनका यह श्रादर्श कभी नहीं हो सकता। ___ दण्ड देने की सामर्थ्य रखते हुए भी अपराधी के अपराध क्षमा करना, ऊँचा आदर्श है किन्तु नेत्रों के सामने होते हुये अत्याचार और अन्याय देख कर भी निश्चेष्ठ बैठे रहना महान् दुष्कर्म है । इसी लिये तो कहा है, कि क्षमा, शान्ति और सब की भी कोई सीमा है। दारुण दुःख जब शरीर में प्रवेश कर हृदय - जब तू देखे या सुने, होते अत्याचार । जब तेरा चुप बैठना, है यह पापाचार ।।
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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