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________________ उसका भी अपना एक क्षेत्र है, अपनी मर्यादाये है और अपनो उपयोगिता है । यानी गृहस्वावस्या में भी अपनी उपज है, ऊसर नहीं है, ऐसा मानना ही पड़ेगा। इसी प्रकार सयमी क्षेत्र की भी अपनी मर्यादायें है, अपना मन्य है और अपनी उपयोगिता है भले मोन क्षेत्र मे वह कितना ही गीण क्यो न हो। यहाँ भी मुनिराज नाहार लाने हैं, निद्रा लेते हैं और शोचादि से निवृत्त होते है । तो क्या कह दे कि वे वुरे है, दोपी हैं, अलमस्त है या यमस्य चूकते है । यदि नहीं, तो क्या उनके मल-याग को 'त्याग' मानेगे? धर्म मानेंगे? पुण्य मानेगे? पाप मानेंगे? आखिर कुछ तो मानेगे। घबराइये मत, धर्म मानने पर भी हम मुनिराजो को जुलाव लेने की गय नहीं देंगे। अस्तु। कोई कुछ माने या न माने, अथवा इस चर्चा को ही बुरी माने पर हमें तो इमे मुनिराज के अपने जान-पने में अपनाने के कारण शुद्ध मयमी जीवन की क्रिया का एक अग मानना ही पड़ेगा, यह सब जानते हुए भी कि यह नो हिनापूर्ण, अनुचिपूर्ण और परिग्रह-पूर्ण क्रिया ही है। कारण स्वाध्याय को छोड कर मवेरे-नवेरे मुनिराज को, पानी लेने और वाहर(मलत्याग) के लिए, जाना ही पड़ता है और यह कोई उनके कारथोपी जाने वाली क्रिया भी नही है। लाते हैं, साते है, चबाते है और पचाते हैं तव जाते हैं। सम्भवत स्वामीजी भी मुनिराज के ऐमे व्यवहार को देखते हुए भी इसे अथवा मुनिराज के सयमी जीवन को बुरा नहीं कह सकते या मुनिराज को चूका नही बतला सकते। ठीक इसी प्रकार गृहस्थावस्या के भगवान के व्यवहारो को भी हम उसी के पैमाने से मापन वे अधिकारी है न कि ऊँचे क्षेत्र के व्यवहारो के पैमानो से । क्या स्वानीजी कह सकते थे कि भगवान ने जो गृहस्थावस्था में व्यवहार अपनाये वे अनैतिक, अविवैको, अमर्यादित या किमी व्रत भग के दोप से परिपूर्ण थे? क्या तोकर भगवान ने कोई व्रत लेकर वन तोडा ? क्या उनके कर्म भारी पडे ? खेती करने से साधु का मावपना भग हो जाता है पर श्रावक का श्रावकपना भग नहीं होता। फिर भी स्वामीजी का निर्णय क्या होता और थोडी देर के लिए मान लें कि कुछ ऐसी ही वात थी तो फिर शास्त्रकारी ने परमात्मा के पाँच कल्याणक क्यो माने ? केवलजान और मोल के दो कल्याणक हो गानते। देवता भी परमात्मा के सम्मान में पांच बार क्यो आये ? एक जैसा सम्मान क्यो किया ? विवाह इत्यादि के मौके पर छठी वार क्यो नही आये ? स्वामीजी ने भी पाँच कल्याणक क्यो माने ? ९९ -
SR No.010055
Book TitlePooja ka Uttam Adarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPanmal Kothari
PublisherSumermal Kothari
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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