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________________ कोई उपाय शेष नही, तब उन्होने अन्यमनस्क होकर वह आखिरी कदम उठाया। इसी तरह साध्वीजी महाराज के बचाव में भी जो प्राण-हानि हुई, वह भी सभी सम्भव उपायोंकी असफलताके पश्चात् उठाये गये आखिरी कदमका ही परिणाम था। यह सभव है कि कभी-२ अन्य उपाय के रहने पर भी कार्यकर्ता सर्व उपाय शेष समझ ले और वह आखिरी उपाय को काम में लेने पर उतार हो जाय या ले ले परन्तु यह कर्ता की योग्यता पर ही निर्भर है । जहाँ तक उसके हृदय की सच्चाई से सम्बन्ध है ऐसा कदम आगे उठाने पर भी वह पूर्ण निर्दोष है। जैन तो इतना ही कहेगा कि प्रयासो में यह हमारा अन्तिम प्रयास होना चाहिए। प्रश्न में मुनिराज के उपचार के सम्बन्ध मे जो पूछा गया है, जैनमुनि तो क्या साधारण व्यक्ति भी ऐसा उपचार कभी स्वीकार नहीं करेगा और ऐसी प्राण हानि को पूर्ण हिंसा की ही कोटि में रखेगा। __हम यह अच्छी तरह जानते है कि यह हमारे चारित्र्य या जीवन पर उस जीव का आक्रमण नही है। मर जाना, मार दिया जाना या चारित्र्यहीन बना देना इन सब तथ्यों में बहुत फरक है। रोग होना, मर जाना यह तो प्राकृतिक नियम है। मरना आज नहीं तो कल पडेगा। यह निर्विवाद एव सुनिश्चित है। इसमें विचारे उस जीव का क्या दोष ? फिर ऐसे उपचार के बाद भी । यदि न बच सके तो? बहुधा हम यह देखते हैं कि ऐसे उपचार के बाद भी अनेक नहीं बच पाते । इसी उपचार मे ही यदि यह करामात होती तो आज तक कोई नहीं मरता। यह तो हमारी भ्रान्ति है। रोग के उपचार का यह आखिरी उपाय भी नहीं माना जा सकता। इससे भी अच्छे-२ अन्य अहिंसात्मक बहुत से उपाय अभी भी शेष है । यदि मान भी ले कि बचाव का और कोई उपाय शेष नही, बचाव का यही आखिरी उपाय है तब हम कहेंगे कि आप इस उपाय को भी दफनां दीजिए। चारिश्य वृद्धि की ओट में एक निर्दोष जीव की हत्या कैसे स्वीकार की।जा सकती है ? निर्दोष को जान बुझकर मारना ही घोर चारित्रिक पतन है । भविष्य की चारित्रय वृद्धि की आशा में अन्यायपूर्वक प्राण बचाने का कोई भी उपाय जैनी को कभी स्वीकार नहीं हो सकता। इसे चारित्र्य वृद्धि नहीं कह सकते । कहाँ दोषी से बचने का भाव, कहाँ निर्दोषी की हत्या; इन दोनो मे आकाश-पाताल का अन्तर है। निर्दोष जीव के प्रति दया और करुणा का भाव रखते हुए मृत्यु का हसते हुए आलिंगन करना कही अधिक श्रेयस्क रहै, श्लाघनीय है । यही उदात्त भाव चारित्र्य की सच्ची रक्षा है।
SR No.010055
Book TitlePooja ka Uttam Adarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPanmal Kothari
PublisherSumermal Kothari
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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