SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वार्थी लोगों के सम्बन्ध में क्या कहा जाय ? अग्रगण्य बने हुए वे लडाईist को प्रोत्साहन देते रहते हैं और जिधर प्रसिद्धि देखते हैं उधर ही शीघ्र झुक जाते हैं। अपने आप को उसी सम्प्रदाय का अनुयायी बतलाने लगते हैं । ऐसे व्यक्ति शुद्ध धर्म के मर्म को वस्तुत समझ ही नही पाये है । आत्मा का मुख्य गुण तो उसमे किसी भी प्रकार के कषाय का उत्पन्न न होना है। इसके विपरीत कोई भी आचरण 'धर्म' नही माना जा सकता यदि कोई कहता है तो वह धोखा है, मानने योग्य नही है । तत्व रसिक जन थोड़ला रे, बहुलो जन सम्वाद । जाणो छो जिनराजजी रे, सधला एह विवाद रे ॥ चन्द्रा० ॥ चन्द्रानन-जिन, सांभलिए अरदास रे सही हित की बात बहुत ही कम व्यक्तियो को रुचिकर लगती है क्योकि उसमे मन को काबू में रखना होता है । सहज विषय प्रेमी होने के कारण लोगो का एक बडा समूह व्यर्थ के क्रिया-कलापो मे ही अधिक रुचि लिया करता है । है जिनराज । सर्वज्ञ होने के नाते इन समस्त वाद-विवादो के सम्बन्ध में आप जानते ही हैं । नाथ चरन वन्दन तणो रे, मन मां घणो उमंग । पुण्य बिना किम पामिये रे, प्रभु सेवन नो रंगरे ॥ चन्द्रा० ॥ चन्द्रानन- जिन, सांभलिए अरदास रे हे जिनराज ! आपके चरणो में वन्दन करने के लिए मन मे बडा उल्लास उत्पन्न हुआ है । मन होता है तुरन्त आकर आपके चरणो मे अपना मस्तक रख दूँ पर बिना प्रबल पुण्य के आपकी सेवा का सयोग कैसे प्राप्त हो सकता है ? यह सब तो महान् पुण्योदय से ही प्राप्त होता है । परम योगीराज दादा आनन्दघनजी के स्तवनो से भी ऐसा ही अनूठा रस अन्तः स्तल तक पहुँच कर आलोड़ित करने वाला है । स्वामी के स्तवन में फरमाते हैं महाराज, अभिनन्दन २.०८
SR No.010055
Book TitlePooja ka Uttam Adarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPanmal Kothari
PublisherSumermal Kothari
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy