SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२ जैनशासन कोडीकृताशेषशरीरिवर्गा रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः । निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपायः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ १६ ॥ यो व्यापको विश्वजनीनवृत्तेः सिद्धो विबुद्धो धुतकर्मबन्धः । ध्यातो धुनीते सकलं विकारं स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ १७ ॥" -भावनाद्वात्रिंशतिका विश्व-स्वरूप जो विश्व सर्वज्ञ, वीतराग परमात्माकी ज्ञान - ज्योतिके द्वारा आलोकित किया जाता है उसके स्वरूपके सम्बन्धमे विशेष विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है । जब तत्त्व-ज्ञानके उदय तथा विकासके लिए सात्त्विक भावापन्न व्यक्ति यह सोचता है " को मैं ? कहा रूप है मेरा ? पर है कौन प्रकारा हो ? को भव-कारन ? बंध कहा ? को प्रात्रव- रोकनहारा हो ? खिपत बंध-करमन काहे सो ? थानक कौन हमारा हो ?" - कविवर भागचन्द्र तब आत्म-स्वरूपके साथ-साथ जगत्के अन्तस्तलका सम्यक् परिशीलन भी अपना असाधारण महत्त्व रखता है । साधारणतया सूक्ष्म चर्चा - की कठिनता से भीत व्यक्ति तो यह कहा करता है कि विश्वके परिचय मे क्या धरा है, अरे, लोक-हित करो और प्रेमके साथ रहो, इसीमे सब कुछ है । ऐसे सत्त्व-शून्य व्यक्तियोको पथप्रदर्शक यदि माना जाए तो जगत्म ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल आदिके विकासादिका अभाव होगा । यह सत्य है कि कृतिमे पवित्रताका प्रवेश हुए बिना परमधामकी प्राप्ति नही होती, किन्तु उस कृतिके लिए सम्यक् ज्ञानका दीप आवश्यक है, जो अज्ञान- अधकारको दूर करे ताकि मार्ग और अमार्गका हमे सम्यक् - बोध हो । जगत्की विशालता और उसके रगमचपर प्रकृति नटीकी भाति
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy