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________________ ३८ जैनशासन ईश्वर-कर्तृत्वके सम्बन्धमे अत्यन्त आकर्षक युक्ति यह उपस्थित की जाती है-"क्या करे, परमात्मा तो निष्पक्ष न्याय-दाता है, जिन्होने पापकी पोटली बाध रखी है, उनके कर्मानुसार वह दण्ड देता है। दयाकी अपेक्षा न्यायका आसन ऊँचा है।" ऐसे कर्तृत्वसमर्थक व्यक्तिको सोचना चाहिए, कि अनन्तज्ञान, अनन्तशक्ति तथा अनन्त करुणापूर्ण परमपिता परमात्माके होते हुए दीनप्राणी पापोके सचयमे प्रवृत्ति करे उस समय तो वह प्रभु चुपचाप इस दृश्यको देखता रहे और दण्ड देनेके समय सतर्क और सावधान हो अपने भीषण न्यायास्त्रका प्रयोग करनेके लिए उद्यत हो उठे। यह बडी विचित्र वात है | क्या सर्व-शक्तिमान् परमात्मा अनर्थ अथवा अनीतिके मार्गमे जानेवाली अपनी सन्ततिसमान जीवराशिको पहिलेसे नहीं रोक सकता? यदि ऐसा नहीं है तो सर्वशक्तिमान् क्या अर्थ रखता है ? 'Bankruptcy of Religion'--'धर्मका दिवालियापन' अग्रेजी ग्रन्थमे वडे मार्मिक शब्दोमे परम उपकारी परमात्माके होते हुए विश्वमे जीवोकी कप्टपूर्ण अवस्थाके सद्भावपर आलोचना की गई है। पापके फल स्वरूप युद्धका प्रचण्ड दण्ड ईश्वर प्रदत्त मानना अत्यन्त जघन्य तथा महान् प्रतिहिंसात्मक कार्य है। एक शक्तिशाली पिता अपनी कन्या पर अत्याचारको चुपचाप देखता है और पीछे यह कहता है कि इस लडकीने मेरे गौरवपर पानी फेर दिया है। ऐसे पिताके समान ईश्वरका भी कार्य माना जायगा । समर्थ एवं परोपकारी महान् आत्मा पहले ही अनर्थको रोकनेका उद्यम करेगा जिससे पश्चात्, दण्डदानकी अप्रिय स्थिति उत्पन्न न होवे। - - { "We should like to sce this supreme benevolence that feeds lavens making some mark in the human order helping or halting wisdom to lessen the world old flow of tears and blood guarding the innocent from
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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