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________________ धमको आधारशिला - आत्मत्व T होता, तो मैं तुम्हे आधी दुनियाका अधिपति बना देता, यदि तुम उस प्रश्नका उत्तर स्वय देते, कि 'मैं' कौन हूँ ।" भ्रान्तिके कारण यह जीव 'मैं' को नही जानता । धर्म-तत्त्वके आश्रयस्वरूप आत्माको आधिभौतिक पण्डित जड-तत्त्वोके विशेष सम्मिश्रणरूप समझते है। उन्हे इस बातका पता नही है कि अनुभव और प्रबल युक्तिवाद आत्माके सद्भावको सिद्ध करते है | ज्ञान आत्माकी एक ऐसी विशेषता है जो उसके स्वतन्त्र अस्तित्वको सिद्ध करती है। करते हुए कहते पञ्चाध्यायीमे लिखा है कि प्रत्येक आत्मामे जो 'अहम् ' ' प्रत्यय -- 'मै 'पनेका वोध है वह जीवके पृथक् अस्तित्वको सूचित करता है ।" डीका कहता है - "Cogito ergo Sum.” I think, therefore I am मै विचारता हूँ, इस कारण मेरा अस्तित्व है। प्रो० मैक्समूलर ठीक इसके विपरीत शब्दो द्वारा आत्माका समर्थन है - 'मेरा अस्तित्व है अतएव मे सोचता हूँ - I am, therefore I think. ' जीवकी प्रत्येक अवस्थामे उसका ज्ञान-गुण उसी प्रकार सदा अनुगमन करता है, जिस प्रकार अग्निके साथ-साथ उष्णताका सद्भाव पाया जाता है । सोते-जागते प्रत्येक अवस्थामे इस आत्मामे 'अह प्रत्यय'-मै- पनेका वोध पाया जाता है । यही कारण है कि निद्रामे अनेक व्यक्तियोके समुदायमे से व्यक्ति विशेषका नाम पुकारा जानेपर वह व्यक्ति ही उठता है, कारण, उसकी आत्मामे इस बातका ज्ञान विद्यमान है कि मेरा अमुक नाम है । 1 जो व्यक्ति, महुआ आदि मादक वस्तुओके सन्धानमे विशेष उन्मादिनी शक्तिकी उद्भूति देख पृथ्वी, जल आदि तत्त्वोके सम्मिश्रणसे चैतन्यके प्रकाशका आविर्भाव मानते हैं, वे इस बातको भूल जाते है कि जब व्यक्तिशः जडतत्त्वोमे चैतन्यका लव-लेश नही है, तब उनकी १ "अहंप्रत्ययवेद्यत्वात् जीवस्यास्तित्वमन्वयात् ।”
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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