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________________ धर्म और उसकी आवश्यकता ११ मोहकी नीदमे मग्न रहनेवालोको गुरु नानक जगाते हुए कहते हैं - जागो रे जिन जागना, अब जागनिकी बार । फेरि कि जागो 'नानका, जब सोवउ पांव पसार ॥ आजके भौतिक-वादके भँवरमे फँसे हुए व्यक्तियोमेसे कभी-कभी कुछ विशिष्ट आत्माएँ मानव जीवनकी अमूल्यताका अनुभव करती हुई जीवनको सफल तथा मंगल मय बनानेके लिए छटपटाती रहती है। ऐसे ही विचारोसे प्रभावित एक भारतीय नरेग, जिन्होने आइ० सी० एस० की परीक्षा पास कर ली है, एक दिन कहने लगे - "मेरी आत्मामे बड़ा दर्द होता है, जव में राजकीय कागजातों आदिपर प्रभातमे सन्ध्यातक हस्ताक्षर करते-करते अपने अनुपम मनुष्य जीवनके स्वर्णमय दिवसके अवसानपर विचार करता हूँ। क्या हमारा जीवन हस्ताक्षर करनेके जडयत्रके तुल्य है ? क्या हमे अपनी आत्माके लिए कुछ भी नही करना है ? मानो हम शरीर ही हो और हमारे आत्मा ही न हो। कभी-कभी आत्मा वेचैन हो सब कामोको छोडकर वनवासी वननेको लालायित हो उठता है । मैने कहा, इस तरह घवरानेसे कार्य नही चलेगा । यदि सत्य, सयम, अहिंसा आदिके साथ जीवनको अलंकृत किया जाय, तो अपने लौकिक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य करनेमें कोई बाधा नहीं है। आप वैज्ञानिक धर्मके उज्ज्वल प्रकाशमें अपनेको तथा अपने कर्त्तव्योको देखनेका प्रयत्न कीजिए । इससे शान्तिपूर्वक जीवन व्यतीत होगा तथा मनुष्य-जीवनकी सार्थकता होगी । गौतमबुद्ध ने अपने भिक्षुओको धर्मके विषयमे कहा है 'देसेथ भिक्खवे धम्मं अदिकल्लाणं मज्झे कल्लाणं परियोसानकल्लाण" - भिक्षुओ, तुम आदिकल्याण, मध्यकल्याण तथा अन्तमे कल्याणवाले धर्मका उपदेश दो । आचार्य गुणभद्र आत्मानुशासनमे लिखते है कि-“धर्मं सुखका कारण है। कारण अपने कार्यका विनाशक १ महावग्ग विनय-पिटक ।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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