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________________ ४५२ जैनशासन 'अतर्राष्ट्रीय वधुत्व' दिन मनानेका राष्ट्रसंघके द्वारा कार्य किया जाय, तो सहज ही कार्य बन सकता है । राष्ट्रसंघका सास्कृतिक विभाग इस सम्बन्ध मे महत्त्वपूर्ण सेवा कर सकता है । क्या भारतीय शासनके सूत्रधार इस ओर ध्यान देनेकी कृपा करेगे ? इस प्रकार चतुरताके साथ जनताके नैतिकस्तरको उन्नत करनेके और भी उपाय किए जा सकते है । आज जो देश-विदेशमे आर्थिक संकटकी प्रचण्ड अग्नि प्रज्वलित हो गई है, उसका सुधार कुछ लोग रूसकी पद्धतिपर अर्थव्यवस्थाका प्रसार मानते है, इससे वे गरीबी और अभावका अन्त कर देगे, ऐसा सोचा जाता है। कोई कोई यत्रवादके अमर्यादित प्रसार द्वारा जगत्मे सुखकी वसती बसाने की बात विचारते है । वे सोचते हैं कि इस ध्येयकी पुष्टि या पूर्ति निमित्त प्राणहरण आदि क्रूर कर्म करना भी बुरा नही है । उनकी धारणा हैं, कि औद्योगिक उत्क्रान्तिके कारण जो सपत्तिका एक जगह पुजीकरण प्रारभ हुआ, उसकी चिकित्सा है संपत्तिको समाजकी वस्तु वनाया जाय, ताकि सभी समान रूपसे उसका लाभ ले सके। इस प्रक्रियामे अतिरेकवाद का दोष विद्यमान है । यह ठीक है, कि धन सपन्न वर्गको अपनेको धनका ट्रस्टी सरीखा समझ अनावश्यक द्रव्यको लोकहितमे लगाना चाहिए । इसीसे कविने कहा कि 'महान् पुरुष मेघके समान द्रव्य-जलका संग्रह करके जगत् हितार्थ उसका पुन. परित्याग करते है ।' जैन आचायोंने गृहस्थके आवश्यक दैनिक कार्योंमे त्यागकी परिगणना की है, किन्तु इसका यह अर्थ नही है, कि शासन सत्ता या पशुबलके द्वारा किसीके संग्रहीत अर्थको समाज की संपत्ति मान छीन लिया जाय । द्रव्यका सम्यक् उपयोग न करनेवालोंका १ इस सम्बन्धमें जो प्रयत्न हमने किया था, उसका परिज्ञान परिशिष्ट रूपसे दिए गए दो अंग्रेजीके निबन्धों द्वारा हो सकेगा। उनमें पूर्वोक्त बातका हो वर्णन किया गया है। विज्ञ जनोंको इस दिशामे सहयोग देना चाहिये ।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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