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________________ जैनशासन ४५० सी झोपड़ी था । उसकी दीवाले जीर्ण थी । अर्थके प्रति निस्पृह व्यक्तियोकी वृद्धिमे ही मानवताके विकासकी मगल- ज्योति दिखाई पड़ती है । मोहिनी मूर्ति वाली आधुनिक सभ्यताकी कठोर शब्दोमे आलोचना करते हुए 'विश्व संस्कृतिका भविष्य' निबन्धमे डा० सर राधाकृष्णन् कहते है, "आधुनिक सभ्यता आर्थिक बर्वरताकी मजिलपर है । वह तो अधिकाश रूपमे ससार और अधिकारके पीछे दौड़ रही है । और आत्मा तथा उसकी पूर्णताकी ओर ध्यान देनेकी परवाह नही करती है । आजकी व्यस्तता वेगगति और नैतिक विकास इतना अवकाश ही नही लेने देती कि आत्मविकासके द्वारा सभ्यताके वास्तविक विकासका काम कर सके ।" वे यह भी लिखते है कि "हम अपनेको सभ्य इसलिए नही कह सकते कि, आधुनिक वैज्ञानिक वायुयान, रेडियो, टेलीविजन, टेलीफोन और टाइपराइटर काममे लाते है । वदरको साइकिल चलाना, गिलासमे पानी पीना और तम्बाखूका पाइप पीना सिखा दिया जा सकता है, फिर वह रहेगा वदर ही | शैल्पिक निपुणताका नैतिक विकाससे बहुत कम सम्बन्ध है ।" अतः सच्चे कल्याणकी दृष्टिसे आवश्यक है कि काल्पनिक सभ्यताके शैल - शिखर पर समासीन जगत्का नशा उतारा जाय और यह तत्त्व समझाया जाय, कि सच्ची सभ्यताका जागरण सदाचरण, अहिंसात्मक वृत्ति तथा सतोष - पूर्ण जीवनसे होता है।' 'सदय हृदय हुए' विना मनुष्य यथार्थमे नररूपधारी राक्षस ही बन जाता है । मानवताका पथ राक्षसी जीवनके पूर्ण परिवर्तन करनेमे है । जहा तक पुण्याचरणका सम्बन्ध है, वहा तक यह कहना होगा कि शासक और शासितोको सयम और सदाचारका समान रूपसे परिपालन करना आवश्यक है। शासकोको अधिकारारूढ होनेपर यह नही सोचना १ "विश्वमित्र" दीपावली अंक २९-१० - ४६, १६
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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