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________________ ३८८ जैनगासन मोचित निर्मल थयो न्होन रुचि पूरव तामै । अब वह हो न मलीन कौन जिन संत्रय यासै ?" धनञ्जय महाकवि अपने विपापहारस्तोत्रमे युक्तिपूर्वक यह बात बताते है कि परिग्रहरहित जिनेन्द्रकी आरावनाने जो महान् फल प्राप्त होता है, वह धनपति कुवेर से भी नही मिलता है । जलरहित गैलराजसे ही विशाल नदियां प्रवाहित होती है । जलरात्रि समुद्र से कभी भी कोई नदी नही निकलती । कविवर कहते है “तुङ्गात्फलं यत्तदकिञ्चनाच्च प्राप्यं समृद्धान धनेश्वरादेः । निरम्भसोऽप्युच्चतमादिवाद्रेनेकापि निर्यात धूनी पयोवेः ॥ १६ ॥ " इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है "उच्च प्रकृति तुम नाथ संग किंचित् न धरन ते । जो प्रापति तुम थकी नांहि सो घनेसुरन ते ॥ उच्च प्रकृति जल बिना भूमिधर धुनी प्रकास । जलधि नीर तं भरयो नदी ना एक निकासे ॥ १६ ॥" महाकवि कहते हैं, जिनेन्द्र भगवान्‌की महत्ता स्वत. सिद्ध है, अन्य देवोके दोषी कहे जाने से उनमे पूज्यत्व नही आता । सागरकी विशालता स्वाभाविक है | सरोवरकी लघुताके कारण सागर महान् नही बनता । कितना भव्य तर्क है! वास्तविक बात भी है, एकमे दोष होने से दूसरे में निर्दोषत्व किस प्रकार प्रतिष्ठित किया जा सकता है ? कविको वाणी कितनी रसवती हैं बतावै । १ "पापवान व पुण्यवान् सो देव तिनके श्रीगुन करूँ, नांहि तू गुणी कहावै ॥ निज सुभावतं अम्बुराशि निज महिमा पावै । स्तोक सरोवर कहे कहा उपमा वढ़ि जावै ॥ "
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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