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________________ पुण्यानुवन्धी वाडमय ३८५ "राम रसिक अरु राम रस कहन सुननके दोय । जब समाधि परगट भई, तव दुविधा नहिं कोय ॥" भक्तिके क्षेत्रमे भक्तामर, कल्याणमन्दिर, एकीभाव, विषापहार आदि स्तोत्रोके रूपमे वडी पवित्र और आत्मजागृतिकारिणी रचनाए है। साहित्यकी दृष्टिसे भी भक्तिसाहित्य बहुत महत्त्वपूर्ण है। भक्तामरके मृगपति भीति निवारक पद्यका श्री हेमराजपांडेने कितना सजीव अनुवाद किया है "अति मद मत्त गयन्द कुभथल नखन विदारै। मोती रक्त समेत डारि भूतल सिंगारे । बाकी दाढ़ विशाल, वदनमें रसना लोले । भीम भयानक रूप देखि जन थरहर डोले । ऐसे मृगपति पग तलै, जो नर आयो होय । शरण गए तुव चरणकी बाधा करे न कोय ॥ ३६॥" जिनेन्द्रदेवकी आराधनाके प्रभावसे अग्निकृत उपद्रव भी नष्ट हो जाता है । इस विषयमे कविवर कहते है "प्रलय पवनकर उठी आग जो तास पटन्तर। वमै फुलिंग शिखा उतंग पर जल निरन्तर । जगत् समस्त निगलके भस्म कर देगी मानो। तड़तड़ात दव-अनल जोर चहुँ दिशा उठानो। सो इक छिन में उपशमै, नाम नीर तुम लेत । होय सरोवर परिन में विकसित कमल समेत ॥ ४० ॥" इससे समुद्र सम्बन्धी विपत्ति भी दूर हो जाती है। मानतुग आचार्य भक्तिके रसमे तल्लीन हो कितने हृदय-स्पर्शी उद्गार व्यक्त करते है"अम्भोनिधौ क्षुभितभीषणनऋचक्रपाठीनपीठभयदोल्वणवाडवाग्नी । रंगत्तरंग-शिखर-स्थितयानपात्रास्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ॥" इसे हेमराजजी इन शब्दोमे उपस्थित करते है:
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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