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________________ पुण्यानुवन्धी वाड्मय ३८१ अकडता हुआ 'नाक' की रक्षार्थ उद्यत रहता है । सुन्दर भावके साथ लालित्यप्रचुर पदावली ध्यान देने योग्य है "रूपकी नाक हिए, करमको डांक पिये, ज्ञान दवि रह्यो मिरगांक जैसे घनमें | लोचनकी ढांकसों न माने सद्गुरु हांक, डोल पराधीन मूढ़ रांक तिहूं पनमें ॥ टांक इक मांसकी डली-सी तामें तीन फांक, तोनको सो ग्रांक लिखि राख्यो काह तनमें I तासो कहें 'नांक' ताके राखिबेको करें कांक, लांकसो खरग बाधि बांक धरै मनमें ॥" यह जीव अनादिसे शरीरको अपना मान रहा है, उसे अत्यन्त सुवोध तथा हृदयग्राही उदाहरण द्वारा इन भव्य शब्दोमे समझाते है " जैसे कोऊ जन गयो धोवीके सदन तिनि पहरूय परायो वस्त्र मेरो मानि रह्यो है । धनी देखि को भैया यह तो हमारो वस्त्र, चीन्हो पहचानत ही त्याग भाव लयो है ॥ तैसे ही अनादि पुद्गल सो संजोगी जीव, संगके भमत्यसो विभाव तामें बह्यो है । भेदज्ञान भयो जब आपा पर जान्यो तब 3 न्यारो परभावसो सुभाव निज गयो है ||" · अपनी हीन परिस्थितिके होते हुए वार वार विपदाओके वादल घिरे देख जव साहसका वाघ टूटता हो उस समय ब्रह्मविलासका यह हितोपदेश वडा पथ्यकारी होगा "वहांकी कमाई 'भैया' पाई तू यहां श्राय, अव कहा सोच किए हाथ कछू परिहै ।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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