SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 412
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७६ जैनशासन १" देख भाई । विषयसुख तो केवल दो दिनके है, और पुन. दुखकी परिपाटी-परपरा है । अरे आत्मन् ! भूलकर भी तू अपने कघेपर कुल्हाडी मत मार ।" " अरे मूढ ! जगतिलक आत्माको छोडकर अन्यका ध्यान मत कर । जिसने मरकत मणिको पहिचान लिया है वह क्या काचकी कोई गणना करता है। जो लोग विषयभोगको भोगते हुए आत्मत्वकी पूर्ण विकसित अवस्था मोक्षको चाहते हैं, वे असभवकी उपलब्धिके लिये प्रयत्नशील है । कवि सरल किन्तु मर्मस्पत्री शैलीसे समझाते है - " दो तरफ दृष्टि रखनेवाला पथिक मार्गमे नही बढता है । दो मुखवाली सुई कथा - जीर्णवस्त्रको नहीं सी सकती, इसी प्रकार इद्रियसुख और मुक्ति साथ- साथ नही होती।' भदन्त गुणभद्र एक हृदयग्राही उदाहरण द्वारा इस तत्त्वको समझाते है कि साधक का सच्चा विकास परिग्रहके द्वारा नही होता - ४ ''तराजूके नीचे ऊचे पलडे यह स्पष्टतया समझाते हुए प्रतीत होते १ "विसयसुहा दुइ दिवहड़ा पुणु दुक्खहं परिवाड़ि । भुल्लउ जीव म वाहि तुहं अप्पाखंधि कहाडि ॥ १७ ॥" २ "अप्पा मिल्लिवि जगतिलउ मूढ म झापहि अण्णु । जि मरगउ परियाणियउ तहु कि कच्च गष्णु ॥ ७१ ॥” ३ " वे पंथेहि ण गम्मइ वेमूह सूई ण सिज्जए कथा । विणिण हुंति प्रयाणा इन्द्रियसोक्खं च मोक्ख च ॥ २१३ ॥ " - पाहुड़ दोहा । "दो मुख सुई न सीवे कन्या । दो मुख पन्थी चले न पन्था । यो दो काज न होहिं सयाने । विषय भोग र मोख पयाने ॥” ४ "वो जिघृक्षवो यान्ति यान्त्यूर्ध्वमजिघृक्षवः । इति स्पष्टं ददन्तो वा नामोलामो तुलान्तयोः ॥ १५४ ॥"
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy