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________________ पुण्यानुवन्ची वाङ्मय ३६ε है । इस आत्माका प्राण ज्ञान है, जो अविनाशी रहनेके कारण कभी भी विनष्ट नही होता। इस कारण आत्माका भी कभी नरण नही होता । अत. ज्ञानी जनको किस बात का डर होगा ? वह निर्भयतापूर्वक स्वयं सदा स्वाभाविक ज्ञानको प्राप्त करता है । पूज्यपाद स्वामी कितनी " जो परमात्मा है, वही में हूं, उज्ज्वल तथा गभीर वात कहते है( आत्मपना दोनोमे विद्यमान है ) जो में हूँ, वही परमात्मा है । ऐसी स्थितिमे मुझे अपनी आत्माकी ही आरावना करना उचित है, अन्यकी नही ।' बुधजनजी लिखते हैं - "मुक तुम भेद यो, और भेद कछ नाहि । तुम तन तन परब्रह्म भए, हम दुखिया तन मांहि ॥" - सतसई । आत्मतत्त्वका साक्षात्कार किस अवस्थामे होता है इस पर स्वामी पूज्यपाद कहते है - जव अन्त. करण-जल राग-द्वेष, मोहादिकी लहरोंसे चचल नही रहता है, तब साथक आत्मतत्त्वका साक्षात्कार करता है । अन्यलोग उस तत्त्वको नही जानते है । उनका यह भी कयन है कि इस 'शरीरमे आत्म दृष्टि या आत्मचितनाके कारण यह जीव शरीरान्तर वारण करनेके कारणको प्राप्त करता है | विदेहत्वकी उपलब्धि - शरीर रहित अपने आत्म-स्वरूपकी प्राप्ति - का वीज हैं आत्मामें ही आत्मभावना धारण करना । १ " यः परमात्मा स एवाहं योऽहं ल परमस्ततः । श्रहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ॥” - समाधितन्त्र ३१ । २ " रागद्वेषादिकल्लोलरलोलं यन्मनोजलम् । स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं तत्तत्त्व नेतरी जनः ॥ ३५ ॥" ३ " देहान्तर्गतेर्वोजं देहेऽस्मिन्नात्मभावना । वीजं विदेहनिष्पत्तेः श्रात्मन्येवात्मभावना ॥ ७४ ॥ " - स० त० । २४
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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