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________________ जैनशासन बनाया, जिसकी टीका जयधवला ६० हजार श्लोक प्रमाण वीरसेन स्वामी तथा उनके शिष्य भगवज्जिनसेनने की है। कुन्दकुन्द मुनीन्द्रने अध्यात्म नामक परा-विद्याके अमृतरससे आपूर्ण अनुपम ग्रन्थराज समयसारकी रचना की। उसके आनन्द-निर्झरके प्रभावसे जगत् का परिताप सतप्त नही करता। उनकी यह शिक्षा प्रत्येक साधकके लिए श्वासोच्छवासकी पवनसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है और प्रत्येक सत्पुरुषको उसे सदा हृदयमे समुपस्थित रखना चाहिये, "मेरी आत्मा एक है। अविनाशी है। ज्ञान-दर्शन-शक्तिसम्पन्न है। मेरी आत्माको छोडकर शेष सब बाहरी वस्तुए है। यथार्थमे वे मेरी नही है। उनका मेरी आत्माके साथ सयोग सम्बन्ध हो गया है।" मेरी आत्मा जब विनाश-रहित है, तब वज्रपात भी उसका कुछ विगाड नहीं कर सकता है। शरीरके नाश होनेसे मेरी आत्माका कुछ भी नही विगडता है। कारण, शरीर मेरी आत्मासे पृथक् है। मेरी आत्मा तो एक है, एक थी, और यथार्थत एक ही रहेगी। जिसकी इस सिद्धान्त पर श्रद्धा जम चुकी है वह न मृत्युसे डरता है, न विपत्तिसे घवडाता है और न भोगविषयोसे व्यामुग्ध ही वनता है। वह साधक एक यही तत्त्व अपने हृदय पटल पर उत्कीर्ण करता है "एगो मे सासदो आदा णाणसणलक्खणो। सैसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥" 'प्राकृत भाषाके पश्चात् उद्भूत होनेवाली विभिन्न प्रातीय भाषाओकी मध्यवर्तिनी अपभ्रग नामकी भाषामे भी जैन कवियोने स्तुत्य कार्य किया है। अब तक इस भाषामे लिखे गए उपलब्ध बहुमूल्य ग्रन्थोमें जैन रच १ श्वेताम्बर आगमग्रन्थोकी विपुलराशि इसी भाषाके भण्डारका बहुमूल्य भाग है।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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