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________________ जैन शासन शान्तिकी ओर इस विशाल विश्वपर जब हम दृष्टि डालते हैं, तब हमे सभी प्राणी किसी-न-किसी कार्यमें सलग्न दिखायी देते है। चाहे वे कार्य शारीरिक हो, मानसिक हो अथवा आध्यात्मिक । उनका अन्तिम ध्येय आत्माके लिए आनन्द अथवा गान्तिकी खोज करना है । लेकिन ऐसे पुरुषोका दर्शन प्राय दुर्लभ है, जो प्रामाणिकतापूर्वक यह कह सकें कि-'हमने उस आनन्दकी अक्षय निधिको प्राप्त कर लिया है। हमारा यह अभिप्राय नहीं है कि विश्वमे पाये जानेवाले पदार्थ कुछ भी आनन्द प्रदान नहीं करते, कारण, अनुकूल शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक पदार्थको पाकर प्राणी सतुष्ट होते हुए पाये जाते है और इसीलिए लोग कह भी बैठते है-भाई, आज बडा आनन्द आया | किन्तु, वह आनन्द स्थायी नहीं रहता। मनोमुग्धकारी इन्द्र-धनुष अपनी छटासे प्रेक्षकोके चित्तको आनन्द प्रदान करता है, किन्तु अल्प-कालके अनन्तर उस सुरचापका विलीन होना उस आनन्दकी धाराको शुष्क बना देता है। इसी प्रकार विश्वकी अनन्त पदार्थ-मालिका जीवोको कुछ सतोष तो देती है, किन्तु उसके भीतर स्थायित्वका अभाव पाया जाता है। ___ उस भौतिक पदार्थसे प्राप्त होनेवाले आनन्दमें एक बडा सकट यह है कि जैसे जैसे विशिष्ट आनन्द-दायिनी सामग्री प्राप्त होती है, वैसे वैसे इस जीवकी तृष्णाकी ज्वाला अत्यधिक प्रदीप्त होती जाती है। और वह यहा तक बढ़ जाती है कि सम्पूर्ण विश्वके पदार्थ भी उसके मनोदेवताको पूर्णतया परितृप्त नही कर सकते।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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