SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५० जैनशासन के चित्तमे व्यथा उत्पन्न होती है, जैसे महाग्रहसे विकारी व्यक्तियोको मन्त्रविद्याके श्रवण द्वारा पीडा होती है। अत एव महापुरुष पवित्र और विमल शिक्षाओको देना अपना कर्तव्य समझते है। लोक-प्रशसा अथवा विरक्तिका उनके सन्मार्गानुशासन पर कोई प्रभाव नहीं पडता, उनका ध्येय प्रशसाके प्रमाणपत्र संग्रह करना नही रहता है। उनका लक्ष्य सन्मार्गका प्रकाशन रहता है। जिनसेन स्वामी कहते है "परे तुष्यन्तु वा मा वा कविः स्वार्थ प्रतीहताम् । न पराराधनात् श्रेयः श्रेयः सन्मार्गदेशनात् ॥ १-७६ । पाश्चात्योके भारत-भूपर पदार्पण करनेके अनन्तर देश-विदेशमे ग्रन्थ सग्रह तथा उनके प्रकाशन, परिशीलन आदिका एक नवीन युग अवतरित हुआ। उस समय अन्य वाङमय तो प्रकाशमे आया, किन्तु जैन समाजने शुद्धताके विशेष ममत्त्ववश, अथवा विधर्मियो द्वारा ग्रन्थनाशकी भीतिके कारण अपनी चमत्कारक अमूल्य कृतियोको साहित्यिक कलाकारो के समक्ष लानेमे अत्यधिक शैथिल्यका परिचय दिया, ऐसी ही साप्रदायिक दृष्टि द्वारा अनेक महत्त्वपूर्ण जैन साहित्यकी रचनाए भी अन्य धर्मी बताई गई। ईसाकी प्रथम शताब्दीमे एलाचार्य (कुन्दकुन्द) द्वारा रचित जैन ग्रथ 'कुरल' काव्यको एक तिरुवल्लुवर नामके अछुत शूद्रकी कृति कहा जाता है। सौभाग्यसे प्रतिभाशाली विद्वान् प्रो. चक्रवर्तीने ग्रन्थका अन्त परीक्षण करके ऐसी सामग्री उपस्थित की, कि जिससे सत्य शोधको को 'कुरल' को जैन रचना स्वीकार करना होगा। जैसे मगलाचरणके पद्यमे किसी भी हिन्दू देवताकी वन्दना न करके उनको प्रणाम किया है "He who walked on lotus"-जो कमल पर चलते थे। जैन पुराणोमे १ "असतां दूयते चित्तं श्रुत्वा धर्मकथां सतीम् । मन्त्रविद्यामिवाकये महाग्रहविकारिणाम् ॥” १-८६ ।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy