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________________ जैनशासन शास्त्र सिन्धु अपार है । जीवन थोडा है । विघ्नोकी गिनती नही है । ऐसी स्थिति ग्रन्थ- समुद्रका अवगाहन करनेके असफल प्रयासके स्थानमे सार बातको ही ग्रहण करना उचित है । असार पदार्थका परित्याग करना चाहिये, जैसे हस अम्बुराशिमे से प्रयोजनीक दुग्धमात्रको ग्रहण करता है । साधक उस ज्ञानरीशिसे ही सम्बन्ध रखता है, जो आत्मामे साम्यभावकी वृद्धि करती है तथा इस जीवको निर्वाणके परम प्रकाशमय पथमे पहुँचाती है। जो ज्ञान राग, द्वेप, मोह, मात्सर्य, दीनता आदि विकृतियो को उत्पन्न करता है, उसे यह कुज्ञान मानता है । सत्पुरुष ऐसी सामग्री को आत्मविघातक बताते है, जो आविष्कारके रूपमे प्राणघातक विष, फन्दा, यत्र आदिके नामसे जगत् के समक्ष आती है ।' महापुराणकार भगवज्जिनसेनने वास्तवमे उनको ही 'कवि तथा विद्वान् माना है जिनकी भारती धर्म - कथागत्व है। उनका कथन है "धर्मानुबन्धिनी या स्यात् कविता संव शस्यते । शेषा पापासवायैव सुप्रयुक्तापि ३४८ जायते ||" - महापुराण १-६३ । धर्मसे सम्बन्धित कविता ही प्रशसनीय है। अन्य सुरचित कृतिया भी धर्माधिन न होने के कारण पापकर्मो के आगमनकी कारण है । ऐसे रचनाकारोको जिनसेन स्वामी कुकवि मानते है । जिन साक्षरोकी समझमे यह बात नही आती, कि रागादि रस से परिपूर्ण आनन्द रसको प्रवाहित करनेवाली रचनाओमे क्या दोष है, उनको लक्ष्यविन्दु रखते हुए आदर्शवादी कवि भूधरदासजी लिखते है १ "विसजतकूडपजरनंधादिसु विणुवएसकरणेण । जा खलु पट्ट मई मइ अण्णाण त्तिण वेति ॥ " - गो० जी०३०२ । २ " त एव कवयो लोके त एव च विचक्षणाः । येषां धर्मकथागत्व भारती प्रतिपद्यते ॥" - महापुराण १, ६२ ।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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