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________________ ३३२ जैनशासन ___ खेद है कि अब तक भी ऐसे महापुरुषके उच्च कुलको बदलकर उन्हे मुरा नाईनके गर्भसे उत्पन्न बताया जाता है, तथा सरकारी शालाओ तकमे ऐसा प्रचार किया जाता है। ___ बुद्धधर्म-भक्तरूपसे विख्यात धर्मप्रिय सम्राट अशोकके साहित्यको पढकर कुछ विद्वान् अशोकके जीवनको जैनधर्मसे सबधित स्वीकार करते है। प्रो० कर्णकी धारणा है कि अहिंसाके विषयमे अशोकके आदेश वौद्धोकी अपेक्षा जैनसिद्धातसे अधिक मिलते है। आज जो अशोकका धर्मचक्र भारत-सरकारने अपने राष्ट्रध्वजमे अलकृत किया है, उस चक्र-चिह्नमे चौबीस आरोका सद्भाव चौवीस तीर्थकरोका प्रतीक मानना सम्यक् प्रतीत होता है। स्वामी समन्तभद्रने चक्रवती शान्तिनाथ तीर्थंकरके धर्मचक्रको करुणाकी किरणोसे सुसज्जित-'दयादीधितिधर्मचक्रम्' कहा है। प्रत्येक तीर्थकरने अपनी करुणामयी प्रवृत्ति और साधनाके पश्चात् धर्मचक्रको प्राप्त किया है, अत: धर्मचक्र के सच्चे अधिपति २४ तीर्थकरोकी पवित्र स्मृतिका प्रतीक अशोक स्तभका धर्मचक्र है। इसके विरुद्ध प्रवल तर्कपूर्ण सामग्रीका सद्भाव भी नहीं है। अशोकका जैनधर्मसे सम्बन्ध सिद्ध होनेपर धर्मचक्रके आरोका उपरोक्त प्रतीकपना स्वीकार करना सरल हो जाता है। प्रतीत होता है, कि जैसे बिम्बसार श्रेणिकका जीवन पूर्वमे बौद्ध धर्माराधकके रूपमे था, और पश्चात् रानी चेलनाके, जिसे विद्वेषी लोगोने घृणित चित्रित किया है (देखो/ जयशकरप्रसादका चद्रगुप्त नाटक), समर्थ प्रयत्नसे वह जैन धर्मावलम्बी, हो गया और वह जैन सस्कृतिका महान् स्तभ हुआ, ऐसी ही धर्म-परिवर्तनकी वात अशोकके जीवनमे भी रही है। इस समन्व १. ' "His (Asoka's) ordinances concerning the sparing of anımal life agrees much more closely with the ideas of hertical Jains than those of Buddhists”-Indian Antiquary Vol. V. Page 205.
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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