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________________ ३०६ जैनशासन जैन और बौद्ध साहित्यका तुलनात्मक अध्ययन करनेवाले विशेषज्ञ डाक्टर विमलचरण ला ने बताया है कि कुछ शब्द जैन वाड मयमे जिस अर्थमे प्रयुक्त होते है, उन शब्दोको बौद्धसाहित्यमे अन्य अर्थमे लिया गया है। कुछ जैन शब्द वौद्धोमे नही पाए जाते है। जैसे आकाशका जो भाव जैनोने ग्रहण किया है, उसका बौद्धग्रथोमे अभाव है। जीव .शब्दका अर्थ जैनोमे सचेतन किया गया है, बौद्धोमे उसे प्राणवाची कहते है। जैन शास्त्रोमे आस्रवका अर्थ है कर्मोके आगमनका द्वोर, किन्तु वौद्धशास्त्रोमे उसे 'पाप' का पर्यायवाची कहा है। जैनियोके समान बौद्धो में निर्जराका भावे नहीं है। पूर्ण स्वतत्रताका द्योतक 'मोक्ख' का वौद्धोमे अभाव है। साधन, स्थिति, विधान आदि जैनियोकी बाते बौद्ध साहित्यमे नही है। 'श्रावक' का अर्थ जैनियोमे गृहस्थ होता है। बौद्ध 'भिक्खू' को श्रावक कहते है। 'रत्नत्रय' का भाव दोनोमे जुदाजुदा है। जैनशास्त्रोमे जैसा षड्द्रव्योका वर्णन है, वैसा बौद्ध साहित्य, नहीं है। इन शब्दोके अर्थोपर गभीर विचार करते हुए डा० जैकोबीने एक महत्त्वपूर्ण शोध की, कि 'आस्रव', 'सवर' सदृश शब्दोका जैन साहित्यमे मूल अर्थमे उपयोग हुआ है और बौद्धसाहित्यमे उसका अन्य अर्थमे (Metaphorically) प्रयोग हुआ है, अत. मूल अर्थका प्रयोग करनेवाला जैनधर्म बौद्धधर्मकी अपेक्षा विशेष प्राचीन है। __ डा. जकोबीकी जैनधर्मको प्राचीन प्रमाणित कर उसे बौद्धधर्मसे भिन्न सिद्ध करनेवाली युक्तियोमे ये मुख्य है पुरातन बौद्ध साहित्यमे जैनधर्म सम्बन्धी मान्यताओ आदिका उल्लेख पाया जाता है। दीघनिकायके ब्रह्मजाल सुत्तकी टीकामे 'जलकाय' जीवोका वर्णन है। उसमे आजीवक संप्रदायकी आत्मामे १. “Vide-The Introduction to BHAGAWAN MAHAVIRA AURA MAHATMA BUDDHA.
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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