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________________ इतिहासके प्रकाशमें २८६ "जनोऽयमन्यस्य मृतः पुरातनः पुरातनरेव समो भविष्यति । पुरातनेष्वित्यनवस्थितेषु कः पुरातनोक्तान्यपरीक्ष्य रोचयेत् ॥" मरनेके अनन्तर अन्य पुरुषोके लिए हम भी प्राचीन हो जायेंगे और प्राचीनोके सदृश हो जायेंगे। ऐसी स्थितिमे पुरातनता कोई अवस्थित वस्तु नही रहती, अतएव पुरातन तथा नवीनका परीक्षण करके अगीकार करना चाहिए। जैन तत्त्वज्ञान समीचीन तथा तर्कावाधित होनेसे मुमुक्षुके लिए वदनीय है। प्राचीनताके साथ सत्यका सम्बन्ध सोचनेवाले सभ्योके लिए भी जैन सिद्धान्त माननीय है। भारतवर्षमे विदेशी गासन आनेपर जो पूर्वमे पुरातत्त्वज्ञोने खोज की थी, वह आजके विशिष्ट विकसित अध्ययन के उज्ज्वल आलोकमे केवल मनोरजनकी वस्तु है, कारण सत्यके प्रकाशमे उसका कुछ भी मूल्य विदित नहीं होता। एलफिन्सटन नामक अग्रेज अपनी भारतीय इतिहासकी पुस्तकमे लिखते है-"जैनधर्म छठवी या सातवी ईसवीमे उत्पन्न हुआ।" इस परपराका अनुगमन टामस, वेवर, जोन्स, मुल्ला आदि अनेक विद्वानोने किया। इस विचारके आधारपर जैनधर्मकी ऐतिहासिकताके विषयमे वहुत भूम उत्पन्न हुआ, किन्तु आधुनिक शोध ने जैनधर्मको अत्यन्त प्राचीन माननेकी अकाट्य सामग्री उपस्थित कर दी है। मेगस्थनीजके लेखोसे इस वातपर प्रकाश पडता है कि ईसवी सनसे चार सौ वर्ष पूर्व बडे बडे नरेश अपने विश्वासपात्र लोगोको जैन श्रमणो ? “The Jains appear to have originated in the 6th or rth century of our era. "History of India P 121 २ "We also know from the fiagments of Magesthenes that so late as the 4th century BC the Sarmanas or the Jain ascetics who lived in the woods were frequently consulted by the kings through their messengers regarding the cause of things" - Jain Gazette Vol XVI p 216.
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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