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________________ २५० जैनशासन है कि अपने सम्प्रदाय - मोहवश मनुष्य सत्यका अपलाप करते हुए लज्जित नही होता । हरिवशपुराणमे भगवान्‌ के पिता महाराज सिद्धार्थको प्रतापी भूप बताया है - "सिद्धार्थोऽभवदर्काभो भूपः सिद्धार्थपौरुषः ।" सर्ग २-१३ इसी बात का समर्थन अशग कवि कृत महावीरचरित्रके इस पद्ययुगलसे होता है "राजा तदात्ममतिविक्रमसाधितार्थः सिद्धार्थं इत्यभिहितः पुरमध्युवास ॥ यो ज्ञातिवंशममलेन्दुकरावदातः श्रीमान् सदा ध्वज इवायतिमानुदः ॥ १७।२० - २१॥" जिस स्थलको प्रभुने अपने निर्वाण - कल्याणकके द्वारा नरामर-वन्दनीय बना दिया, वह विहारशरीफ नामक स्टेशनसे ६-७ मीलपर है । वहासे भगवान् ने कार्तिक कृष्णा अमावस्याके प्रभातमे कर्मोका नाश कर मोक्ष प्राप्त किया था । पावापुरीका वातावरण बहुत शान्त, पवित्र और उज्ज्वल विचारोका उद्बोधक है। यह स्मरण रखना चाहिए कि विचारशील व्यक्तिके लिए ही ये सब साधन कल्याणकारी होते हैं । किन्तु विवेकहीन व्यक्तियोकी मोह - निद्रा प्रयत्न करनेपर भी दूर नही होती। प्राकृत निर्वाणकाण्डमे पूर्वोक्त चार तीर्थंकरोकी आत्मस्वातत्र्यउपलब्धिकी भूमियोका इन सुन्दर शब्दोमे सस्मरण तथा वन्दन किया गया है "अट्ठावयम्मि सहो चंपाए वासुपूज्ज जिणणाहो । उज्जेते मिजिणो पावाए णिव्वदो महावोरो ॥ १ ॥" वृषभनाथने अष्टापद ( कैलास ) से, वासुपूज्य जिनेन्द्रने चम्पापुरीसे, नेमिनाथने ऊर्जयन्त गिरिसे और महावीर भगवान्ने पावापुरीसे निर्वाण प्राप्त किया ।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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