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________________ २४८ -जैनशासन . "देवैतद्वासुदेवेन त्वद्विवाहमहोत्सवे । व्ययीकर्तु मिहानोतमित्यभाषत तेऽपि तम् ॥ १६३ ॥" देव, आपके विवाह महोत्सवमे वासुदेवकी आज्ञासे लोगोके सत्कार निमित्त ये यहा रखे गये है।" इस प्रकृतिकी पुस्तकने नेमिनाथके अन्तः करणमे करुणाके सूर्यको उदित कर दिया। वे सोचने लगे, ये वेचारे निर्दोष प्राणी घास चरते है और वनमे रहते है, इतनेपर भी अपने भोगनिमित्त लोग इन्हे इस प्रकार कष्ट देते है । अहो ! तीव्र मिथ्यात्वके वशीभूत हो मूर्ख जन निष्ठुर बन क्या नही करते । इसके साथ नेमिनाथ प्रभुने इस प्रकरणमे कृष्णकी गुप्त वृत्ति भी जान ली। ससार उन्हे क्षण-भड गुर और स्वार्थपूर्ण दीखने लगा। उन्होने सोचा, अव तो राजीमती राजकन्याके साथ विवाह न कर मुक्तिश्रीका वरण करूंगा। शुष्क निर्दयतासे अन्त करणमे करुणाकी धारा प्रवाहित करनेके लिए सब वैभवका परित्याग कर उन्होने ऊर्जयन्त गिरिपर दीक्षा ली और तपस्वियोके शिरोमणि बने। उधर राजपत्नी वननेवाली शीलवती देवी राजीमतीने भी जीवननाथ नेमिनाथका पदानुसरण कर साध्वीकी दीक्षा ली और साध्वी-जगत्मे श्रेष्ठपदको प्राप्त किया। इन पुण्य विभूतियोने गिरिनार पर्वतको अपने त्याग और तपश्चर्या द्वारा पवित्र स्थान बना दिया। इतिहासकी भाषामे गिरनार पर्वत जैन संस्कृति के समाराधकोका महान् स्थल आजसे लगभग दो हजार वर्ष पूर्व तक भी रहा आया है। क्योकि गिरिनार पत्तनकी चन्द्रगुफामे विद्यमान आचार्य धरसेनने प्रवचन वात्सल्यके कारण भूतबलि और पुष्पदन्तको कर्म-शास्त्र का, अभ्यास कराया था, जिसे अवधारण कर उक्त मुनि-युगलने अत्यन्त पूज्य षट्खण्डागम शास्त्रकी रचना की। गिरिनार पर्वतके साथ नेमिनाथ भगवान की परमकारुणिक वृत्ति और त्यागका सस्मरण आए बिना नहीं रहता। गौतमबुद्धके हृदयमे १ षटखण्डागम भाग १, पृ० ६७, ७०।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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