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________________ कर्मसिद्धान्त २३७ वराग्यसम्पन्न वीर पुरुष अल्पज्ञानके द्वारा भी सिद्ध पदको प्राप्त करते है और सर्वशास्त्रोका ज्ञाता वैराग्यके बिना मुक्ति लाभ नही करता । भावपाहुडमे कुन्दकुन्द स्वामीने लिखा है कि शिवभूति नामक अल्पज्ञानी - जिस प्रकार दाल और छिलके जुदे जुदे हैं, इसी प्रकार मेरा आत्मा भी कर्मोसे भिन्न है इस प्रकारके विशुद्ध भावसे - महाप्रभावशाली हो केवली भगवान् हो गए। स्वामी कहते है - "तुसमास घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य । णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुडं जाओ ॥ ५३ ॥।” इस विषयको स्पष्ट करनेवाली प्रबोधपूर्ण कथा षट्प्राभृत टीकामे श्रुतसागर सूरिने इस भाति बताई है कि एक शिवभूति नामक परम विरागी अल्पज्ञानी सत्पुरुषने गुरुदेवके समीप महाव्रतकी दीक्षा ली। उन्हे शरीर और आत्मामे भिन्नता का अनुभव तो होता था, किन्तु इस विषयको सुदृढ करनेके लिये गुरुने सिखाया - ' ' तुषात् माषो भिन्न इति यथा तथा शरीरात् आत्मा भिन्न इति ।" एक समय शिवभूति इन शब्दोको भूल गये । अर्थ जानते हुए भी शब्द नही जानते थे । एक समय उन्होने एक स्त्रीको दाल बनाने के लिये पानीमे उडदोको डाल छिलकोको पृथक् करते हुए देख पूछा - " किं कुरुषे भवति इति ? ' तुम यह क्या कर रही हो? सा प्राह- 'तुषमाषान् भिन्नान् करोमि - 'मै दाल और छिलकोको पृथक् करती हू ।' इतना सुनते ही शिवभूतिने कहा'मया प्राप्तम्' मुझे तो मिल गया। इसके अनन्तर एक चित्त हो ध्यान मे मग्न हो गये और 'अन्तर्मुहूर्तेन केवलज्ञानं प्राप्य मोक्ष गतः' अन्तर्मुहूर्तमे केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो गए।" स्वामी समन्तभद्र समर्थ युक्तिके द्वारा इस विषयको स्पष्ट करत हुए लिखते है - यदि अज्ञानसे नियमत बन्ध माना जाए, तो ज्ञेय अनन्त १ षट्प्राभृत टीका प० २०१ ।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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