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________________ कर्मसिद्धान्त २३३ उनमे जो तत्त्व-ज्ञानकी शिक्षा देते है, उन्हें उपाध्याय कहते है। जिनके समीप तपस्वी लोग आत्मसाधनाके विषयमे शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करते है, और जिनका अनुशासन प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करते है, उन सत्पुरुषको प्राचार्य कहते है। आचार्यका पद वडा उच्च और पवित्र है। अध्यात्मके विश्व विद्यालयमें जितेन्द्रियताकी प्रथम श्रणीमे परीक्षा उत्तीर्ण कर स्वरूपोपलब्धिके प्रमाणपत्रको पानेवाल पुण्यशाली पुरुषोत्तम को आचार्यका पद मिलता है। ऐसे ही आचार्य धर्मतत्त्वका प्रतिपादन करने के लिए उपयुक्त माने गए है। ___ कैवल्यकी उपलब्धिके अनन्तर आत्माके प्रदेशोकी स्पन्दन-रहित अवस्थाको आत्मविकासको चौदहवी अयोगकेवली नामकी प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। वहा गेष कर्मोका क्षयकर आत्माकी परिशुद्ध अवस्था मिलती है। उन्हें सिद्ध परमात्मा कहते है। वे ससार-परिभूमणके प्रपचसे सदाके लिए मुक्त हो जाते है। वे सिद्ध परमात्मा महाकवि बनारसीदासजीके शब्दोमे इस प्रकार वर्णित किए गए है "अविनाशी अविकार परमरमधाम हो। समाधान सरवज्ञ सहज अभिराम हो। शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनन्त हो। जगत सिरोमनि सिद्ध सदा जयवत हो॥" -नाटक समयसार ४॥ "ध्यान अगनि कर कर्म-कलंक सबै दहे। नित्य निरंजन देव 'स्वरूपी' ह रहै। ज्ञायकके आकार ममत्व निवारि के। सो परमातम "सिद्ध' नमू सिर नायके।" -सिद्ध पूजासे।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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