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________________ कर्मसिद्धान्त किन्तु अन्य कर्म असमयमें भी अल्प फल देकर अथवा विना फल दिये भी निकल जाते है। यदि ऐसी प्रक्रिया न होती, तो अनन्तकालसे आत्मापर लदे हुए कर्मोके ऋणसे जीवकी मुक्ति कैसे हो सकती थी? जीवमें अवर्णनीय शक्ति है। यदि वह रत्नत्रय खड्गको सम्हाल ले, तो कर्म-शत्रु को दूर होते देर न लगे। कर्म अपना फल देकर आत्मासे पृथक् हो जाते है । क्रम-क्रमसे कर्मोका पृथक् होना 'निर्जरा' कहलाता है। समस्त कर्मोके पृथक् होनेको 'मोक्ष' कहते है। आत्मासे कर्मोके सम्बन्धविच्छेद होनेको ही कर्मोका नाग कहते है। यथार्थमे पुद्गलका क्या, किसी भी द्रव्यका सर्वथा नाग नहीं होता। पुद्गलकी कर्मत्व पर्यायके क्षयको कर्म-क्षय कहते है। __ स्वामी समन्तभद्रने लिखा है कि असत्का जन्म और सत्का विनाग नहीं होता। दीपकके वुझनेपर दीपकका नाग नहीं होता, जो पुद्गलकी पर्याय प्रकाश प थी, वही अन्धकार रूप हो जाती है। इसी प्रकार पुद्गलमें कर्मत्व शक्तिका न रहना 'कर्म-क्षय' कहा जाता है। क्योकि सत्का अत्यन्त विनाग असम्भव है। कर्मोके बन्धके कारणोका उल्लेख करते हुए तत्त्वार्थसूत्रकार कहते है मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा वन्धहेतवः।"-८१॥ सत्य स्वल्प अनेकान्त दृष्टिका परित्याग कर एकान्त दृप्टिमे सलग्न होना मिथ्यादर्शन है। अध्यात्म-शास्त्रमें, गरीर आदिमें आत्माकी म्रान्तिको मिथ्यादर्शन कहा है। मिथ्यादर्शन सहित आत्मा वहिरात्मा कहलाता है। समाधिशतकमे कितना सुन्दर लिखा है "वहिरात्मा शरीरादौ जातात्मभ्रान्तिरान्तरः। चित्तदोषात्मविभ्रान्तिः परमात्मातिनिर्मलः ।।" - १ "नवासतो जन्म सतो न नाशो दीपस्तमः पुद्गलभावतोऽस्ति ॥" -वृ० स्वयम्भ० २४
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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