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________________ २२२ जैनशासन 'पाई जाती है। जिस वस्तुके कार्यमे विचित्रता पाई जाती है वह एक स्वभाववाले कारणसे उत्पन्न नहीं होती। जैसे धान्याकुरादि अनेक विचित्र कार्य अनेक शालिबीजादिसे उत्पन्न होते है, उसी प्रकार सुखदुःखादि विचित्र कार्यमय यह ससार है। वह एक स्वभाववाले ईश्वरकी कृति नही हो सकता। कारणके एक होनेपर कार्यमे विविधता नही पाई जाती। एक धान्य वीजसे एक ही प्रकारके धान्य अकुरकी उत्पत्ति होगी। जब इस प्रकार नियम है तब काल, क्षेत्र, स्वभाव, अवस्थाकी अपेक्षा भिन्न शरीर, इन्द्रिय आदि रूप जगत्का कर्ता एक स्वभाववाले ईश्वरको मानना महान् आश्चर्यप्रद है। ___ यहा एक स्वभाववाले ईश्वरकी कृति, यह विविधतामय जगत्, नहीं बन सकता, इतनी बात तो स्पष्ट हो जाती है। किन्तु, यह कर्म विविधतामय आन्तरिक जगत्का किस प्रकार कार्य करता है, यह बात विचारणीय है। कारण, कोई व्यक्ति अन्धा है, कोई लँगडा , कोई मूर्ख है, कोई बुद्धिमान् , कोई भिखारी है, कोई धनवान् , कोई दातार है, कोई कजूस , कोई उन्मत्त है, कोई प्रबुद्ध , कोई दुर्वल है तो कोई शक्तिशाली। इन विभिन्न विविधताओका समन्वय कर्म-सिद्धान्तके द्वारा किस प्रकार होता है? ___ कुन्दकुन्द स्वामी इस विषयका समाधान करते हुए लिखते है कि,जिस प्रकार पुरुषके द्वारा खाया गया भोजन जठराग्निके निमित्तसे मास, चरबी , रुधिर आदि रूप परिणमनको प्राप्त होता है, उसी प्रकार यह जीव अपने भावोके द्वारा जिस कर्मपुञ्जको कार्माण वर्गणाओको ग्रहण करता है उनका, इसके तीव्र, मन्द, मध्यम कषायके अनुसार विविध १ देखो पृ० २६८ से २७३ पर्यन्त, अष्टसहस्री। २ “जह पुरिसेणाहारो गहिरो परिणमइ सो अणेयविहं। मसवसारहिरादिभावे उयरग्गिसजुत्तो॥"-समयप्राभृत १७६ ।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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