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________________ समन्वयका मार्ग - स्याद्वाद १६६ मानने पर तन्तुओसे वस्त्र उत्पन्न होता है और लकडीसे नही होता, यह नियम नही पाया जायगा ।" युक्त्यनुशासनमे स्वामी समन्तभद्रने कहा है- एकान्त रूपसे क्षणिकतत्त्व माननेपर पुत्रकी उत्पत्ति क्षणमे माताका स्वय नाश हो जायगा, दूसरे क्षणमे पुत्रका प्रलय होनेसे अपुत्रकी उत्पत्ति होगी। लोक व्यवहारसे दूरतर माताके विनाशके लिए प्रवृत्ति करनेवाला मातृघाती नही कहलाएगा। कुलीन महिलाका कोई पति नही कहलाएगा, कारण जिसके साथ विवाहसस्कार होगा उस पतिका विनाश होनेसे नवीनकी उत्पत्ति होगी। जिस स्त्रीके साथ विवाह हुआ दूसरे क्षण उसका भी विनाश होनेसे अन्यकी उत्पत्ति होगी । इस प्रकार परस्त्री-सेवनका उस व्यक्तिको प्रसग आएगा । इसी नियमके अनुसार स्व- स्त्री भी नही होगी । धनी पुरुष किसी व्यक्तिको ऋणमे धन देते हुए भी उस सम्पत्तिको बौद्ध तत्त्वज्ञान के अनुसार नही पा सकेगा, क्योकि ऋण देनेके दूसरे ही क्षण साहूकारका नाश हुआ, लिखित साक्षी आदि भी नही रही और न उधार लेनेवाला वचा । शास्त्राभ्यास भी विफल हो जाएगा, कारण स्मृतिका सद्भाव क्षणिक तत्त्वज्ञानमे नही रहेगा, आदि दोष क्षणिककान्तकी स्थिति सकटपूर्ण बनाते है। एक आख्यायिका क्षणिककात पक्षकी अव्यावहारिकताको स्पष्ट करती है। एक ग्वाला क्षणिक तत्त्वके एकात भक्त पडितजीके पास गाय १ " यद्यसत्सर्वथा कार्य तन्मा जनि खपुष्पवत् । मोपादाननियामो भून्माऽऽश्वासः कार्यजन्मनि ॥ ४२ ॥" - श्राप्तमीमांसा २ " प्रतिक्षण भगिषु तत्पृथक्त्वान्न मातृघाती रवपतिः स्वजाया । दत्तग्रहो नाधिगतस्मृतिर्न न क्त्वार्थ सत्यं न कुलं न जातिः ॥ १६॥" - युक्त्यनुशासन पृ० ४२ ।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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