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________________ समन्वयका मार्ग-स्याद्वाद १६७ सूक्ष्म दार्शनिक चिन्तना तो इस विचारको पुष्ट करती है कि जिसने सर्वागीण सत्य-तत्त्वका दर्शन किया है, वही स्याद्वाद विद्याका प्रवर्तक हो सकता है। एकान्त अपूर्ण दृष्टि सत्यको विकृत करनेके सिवा क्या कर सकती है ? अन्धमण्डलने हाथीको स्तम्भ, सूप आदिके आकार का बला लडना प्रारम्भ किया था। परिपूर्ण हाथीका दर्शन करनेवाले व्यक्तिने ही अन्धमण्डलीके विवाद और भूमका रहस्य समझ समाधानकारी मार्ग बताया था कि प्रत्येकका कथन पूर्ण सत्य नहीं है, उसमे सत्यका अश है और वह कथन सत्याश तभीतक माना जा सकता है, जब तक कि वह अन्य 'सत्याशोके प्रति अन्याय प्रवृत्तिका त्याग करता है। इसी प्रकार सकलज्ञ, सर्वदर्शी तीर्थंकरोके सिवाय समन्तभद्रस्याद्वाद- . तत्त्व-ज्ञानका निरूपण एकान्त दृष्टिवाले नही कर सकते। एकान्त सदोष दृष्टिमे स्याद्वादके वीज मानना अनतामे विज्ञताका बीज मानने सदृश होगा। वृक्षको देखकर बीजका बोध होता है। सुस्वादु पवित्र आनन्द और शान्तिप्रद स्याद्वाद वृक्षके वीज कटु, घृणित, एकान्तवादमें कैसे हो सकते है? ___ अब हम कुल एकान्त दार्शनिक मान्यताओका वर्णन करना उचित समझते है जिन्हे स्याद्वादरूपी रसायनके सयोग बिना जीवन नही मिल सकता। बौद्ध-दर्शन जगत्के सम्पूर्ण पदार्थोको क्षण-क्षणमे विनाशी बता नित्यत्वको भ्रम मानता है। बौद्ध तार्किक कहा करते है-'सर्व क्षणिक सत्त्वात्' । बौद्धदृष्टिको हम जगत्मे चरितार्थ देखते है। ऐसा कौनसा पदार्थ है जो परिवर्तनके प्रहारसे बचा हो। लेकिन, एकान्त रूपसे क्षणिक तत्त्व माना जाय तो ससारमें बडी विचित्र स्थिति उत्पन्न होगी। व्यवस्था, नैतिक उत्तरदायित्व आदिका अभाव हो जायगा। स्वामी समन्तभद्र कहते है-प्रत्येक क्षणमे यदि पदार्थका निरन्वय नाश स्वीकार करोगे, तो हिंसाका सकल्प करनेवाला नष्ट हो जायगा और
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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