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________________ १८६ जैनशासन नास्ति, स्यात् अवक्तव्यके सयोगसे चार और दृष्टियो-भगोका उदय होता है-(१) अस्ति-नास्ति (२) अस्ति अवक्तव्य (३) नास्ति अवक्तव्य (४) अस्ति-नास्ति अवक्तव्य । इन चार भगोका स्पष्टीकरण इस भाति जानना चाहिए। अस्तित्व और नास्तित्वको क्रमपूर्वक ग्रहण करनेसे 'अस्ति-नास्ति', अस्तित्वके साथ ही उभय धर्मोको ग्रहण करनेवाली दृष्टि समक्ष रखनेसे 'अस्ति-अवक्तव्य', नास्तित्वके साथ अवक्तव्य दृष्टिकी योजनासे 'नास्ति-अवक्तव्य' तथा अस्ति नास्तिके साथ अवक्तव्यकी योजना द्वारा 'अस्तिनास्ति अवक्तव्य' भग बनता है। इन सात भगोको सप्तभगी-न्यायके नामसे कहते है। ____ गणित-शास्त्रके 'Law of permutation and combination' नियमानुसार अस्ति- नास्ति और अवक्तव्य इन तीन भगोसे चार सयुक्त-भग बनकर सप्तभग दृष्टिका उदय होता है। नमक, मिर्च, खटाई इन तीन स्वादोके सयोगसे चार और स्वाद उत्पन्न होगे। नमकमिर्च-खटाई, नमक-मिर्च, नमक-खटाई, मिर्च-खटाई, नमक, मिर्च और खटाई इस प्रकार सात स्वाद होगे। इस सप्तभगी न्यायकी परिभाषा करते हुए जैनाचार्य लिखते है-"प्रश्नवशात् एकत्र वस्तुनि अविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभगी।" (राजवा०११६)-प्रश्नवशंसे एक वस्तुमे अविरोध रूपसे विधि-निषेध अर्थात् अस्ति नास्तिकी कल्पना सप्तभगी कहलाती है। ___आचार्य विद्यानन्दि अपनी अष्टसहस्री टीकामे बताते है कि सप्त प्रकारको जिज्ञासा उत्पन्न होती है , क्योकि सप्त प्रकारका सशय उत्पन्न होता है। इसका भी कारण यह है कि उसका विषयरूप वस्तु धर्म सप्त प्रकार है। सप्तविध जिज्ञासाके कारण सप्त प्रकारके प्रश्न होते है। अनन्त धर्मोके सद्भाव होते हुए भी प्रत्येक धर्ममे विधि-निषेधकी अपेक्षा अनन्त सप्तभगिया अनन्त धर्मोकी अपेक्षा माननी होगी।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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