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________________ १८२ जैनशासन ( Relative ) है | पाच इञ्चवाली रेखा ऊपर खीचनेपर वह लघु कही जाती है और दो इञ्च मानवाली दूसरी रेखाकी अपेक्षा वह बड़ी कही जाती है । इसी प्रकार वस्तुके स्वरूपके विषयमे साधकको पता लगेगा कि समन्वयकारी परस्परमे मंत्री रखनेवाली दृष्टियोसे वस्तुका स्वरूप ठीक रीतिसे हृदय-ग्राही हो जाता है । यह स्याद्वाद हमारे नित्य व्यवहारकी वस्तु है । इसकी उपादेयतां स्वीकार किए बिना हमारा लोकव्यवहार एक क्षण भी नही वन सकता । प्राचार्य हेमचन्द्रने वताया है, कि स्याद्वादका सिक्का सम्पूर्ण विश्व में चलता है। इसकी मर्यादाके बाहर कोई भी वस्तु नही रह सकती । छोटेसे दीपकसे लेकर विशाल आकाश पर्यन्त सभी वस्तुएँ किसी दृष्टिसे नित्य और किसी दृष्टिसे अनित्य रूप अनेकान्त मुद्रासे अकित है - "प्रदीपभाव्योम समस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु । तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यदिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः ॥ " - अन्ययोगव्य ० पिताकी दृष्टिसे लोक व्यवहारमें हम देखते है एक व्यक्ति अपने पुत्र कहलाता है, वही व्यक्ति, जो पुत्र कहलाता है भानजेकी अपेक्षा मामा, पुत्रकी दृष्टिसे पिता भी कहलाता है, इस प्रकार देखनेसे प्रतीत होता है कि पुत्रपना, पितापना, मामापना आदि विशेषताएँ परस्पर जुदी - जुदी है किन्तु उनका एक व्यक्तिमे भिन्न दृष्टियोकी अपेक्षा बिना विरोधके सुन्दर समन्वय पाया जाता है। इसी प्रकार पदार्थो के विषयमे भी सापेक्षताकी दृष्टिसे अविरोधी तत्त्व प्राप्त होता है। वैज्ञानिक प्रान्स्टाइनने अपने सापेक्षतावाद सिद्धान्त ( theory of relativity ) द्वारा स्याद्वाद दृष्टिका ही समर्थन किया है। वस्तुके अस्तित्व गुणको प्रधान माननेपर सद्भाव सूचकदृष्टि, समक्ष आती है और जब प्रतिपेध्य-निषेध किए जानेवाले धर्म मुख्य होते है, तब नास्ति नामक द्वितीय दृष्टि उदित होती है। वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र,
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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